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जीव-विज्ञान
नहीं ला पाएंगे और किसी अजीव को हम जीव नहीं बना पाएंगे। विज्ञान चाहे कितनी भी तरक्की कर ले लेकिन कभी भी वह इस जीव-विज्ञान के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकता है। चाहे वह कितने भी Clones बना ले, कितने भी जीन्स का Development कर ले, जीव-विज्ञान उसके हाथ में आ ही नहीं सकता है। वह कभी भी जीव का निर्माण नहीं कर सकता है। जो जिस रूप में पारिणामिकभाव के साथ में है वह उसी रूप में रहेगा। हम पारिणामिकभाव के रूप में जीव हैं, हमेशा जीव थे, हैं और जीव ही रहेंगे। इसका नाम है जीवत्व पारिणामिकभाव।
इसी तरह से भव्यत्व पारिणामिक भाव होता है। जो भव्य है तो यह भव्यपना भी किसी कर्म के उदय से नहीं होता है। यह भी भव्य होने की शक्ति, भव्य होने की योग्यता, वह किसी में भव्य होने की पड़ी है तो किसी में अभव्य होने की पड़ी है। जीवत्व तो सभी में है, लेकिन सूत्र में आगे जो लिखा है-'भव्याभव्यत्वा' ,जीवत्व तो सभी में रहेगा लेकिन उसमें कुछ भव्य होंगे और कुछ अभव्य भी होंगे। अब ये क्यों हैं?क्योंकि उनमें पारिणामिकभाव है। पारिणामिकभाव का अर्थ है-इसमें किसी का हस्तक्षेप नहीं है। न किसी कर्म का और न ही किसी भी भगवान आदि की शक्तियों का। हम सोचते हैं कि भगवान ने हमें भव्य बनाया है या हमें अभव्य बनाया है। यह न तो किसी ब्रह्मा ने बनाया है और न ही महेश्वर ने बनाया है। ये सभी जीव के अपने स्वाभाविक भाव हैं। इस तरह से जिन जीवों में भव्यत्व भाव है वह भव्य कहलाएगा और जिन जीवों में अभव्यत्व भाव है वह अभव्य कहलाएगा। बहुत से भव्य जीव मुक्त हो गये और बहुत से संसार में पड़े हुए हैं और वे आगे भी पड़े रहेंगे और बहुतों की उनमें मुक्ति होती चली जाएगी। भव्य और अभव्य इन जीवों से यह संसार कभी भी खाली नहीं होगा। भव्य जीव भी अनन्त है और अभव्य जीव भी अनन्त हैं। इन जीवों से यह संसार कभी भी खाली नहीं होगा। जिनमें योग्यता होती है वह अपनी योग्यता को प्रगट करके मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति भी भव्यजीवों को ही होती है। क्योंकि अभव्य जीवों का एकमात्र पहला गुणस्थान ही होता है। उस गुणस्थान से ऊपर उठना वह उसी के लिए सम्भव है जिसके अन्दर भव्यत्व हो और भव्यत्व भाव जिसमें पारिणामिक रूप से रह रहा हो।
कुछ लोगों के मन में शंका रहती है कि क्या भव्य जीव कभी अभव्य हो सकता है?या अभव्य जीव कभी भव्य हो सकता है?यह बात हमें अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि भव्य कभी अभव्य नहीं हो सकता और अभव्य जीव कभी भव्य नहीं हो सकता। जो जीव जिस रूप में है वह उसी रूप में रहेंगे। यह उनका पारिणामिकभाव है अगर किसी कर्म के उदय से होता तो हटाया भी जा सकता था लेकिन यह तो उनका पारिणामिक भाव है। भव्य जीवों में ही धर्म के प्रति रूचि होती है और निश्छल रूप से धर्म की रूचि है तो वह भव्यत्व का लक्षण बन जाता है। निश्छल का अर्थ है-भीतर से अपने आपको धोखा न देते हुए धर्म के प्रति रूचि रखना। यह रूचि भव्य जीव में होती है। निश्छल रूचि से आप अपने भव्यत्व का ज्ञापन कर सकते हैं। इस तरह जीव के तीन पारिणामिक भाव हो गये। ये सभी मिलाकर त्रेपन भाव हो गये।
जीव का लक्षण