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जीव-विज्ञान
जैसा है उसको बताने वाला यह सिद्धान्त होता है, इसी को यथार्थज्ञान कहते हैं, इसमें हमें अपने मन की नहीं करनी चाहिए। जहाँ कहीं भी आपको ऐसा लिखा मिल जाए कि अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के अंदर चारित्र होता है तो समझना - यह आचार्य भगवंतों की, श्रमणों की वाणी नहीं है।
शंका- अविरत सम्यग्दृष्टि जीव किसे कहते हैं ?
समाधान–जिनको सम्यग्दर्शन तो हो गया लेकिन संयम नहीं आया। चौथे गुणस्थान वाले जीव अविरत सम्यग्दृष्टि जीव कहलाते हैं। जिनको तत्त्वों का श्रद्वान तो हो गया, लेकिन संयम की उत्पत्ति नहीं हुई, देशव्रत संयम भी ग्रहण नहीं किया, उन्हें अविरत सम्यग्दृष्टि जीव कहते हैं ।
लेश्या - छ: प्रकार की लेश्याएँ होती है। तीन अशुभ लेश्याएँ होती हैं और तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं। कृष्ण, नील, कापोत- ये अशुभ लेश्याएँ और पीत, पद्म, शुक्ल - ये शुभ लेश्याएँ होती है। ये भी हमारे औदयिक भावों में आती है। इन लेश्याओं से तात्पर्य है-कर्म के ऐसे प्रभाव, ऐसे रंग हमारे ऊपर चढ़े हुए हैं, उन रंगों का नाम यहाँ पर लेश्या है। जिन कर्मों के कारण आत्मा में यह भाव उत्पन्न होता रहता है, उसे सामान्य रूप से लेश्या के माध्यम से कहा जाता है। इस तरह से ये सभी औदयिकभाव हैं जो इक्कीस प्रकार के होते हैं ।
पारिणामिक भाव के तीन भेद
जीव-भव्याभव्यत्वानि च ।। 7 ।।
अर्थ- जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व - ये तीन जीव के असाधारण पारिणामिक भाव हैं।
ये जीव के पारिणामिकभाव हैं । पारिणामिकभाव
का अर्थ हैं- जो किसी कर्म कारण से नहीं होते हैं। जैसे- जीव भाव - यह जीव है तो जीव क्यों है? यह अजीव है तो अजीव क्यों है? यह किसी जीव नाम-कर्म के कारण से है या यह अजीव नाम-कर्म के कारण से है, ऐसा नहीं है। हम किसी कर्म के कारण से जीव नहीं है - यह कहलाता है पारिणामिक भाव । प्रत्येक द्रव्य में पारिणामिक भाव मिलेगा, जीव आदि सभी द्रव्यों में पारिणामिक भाव होते हैं। जीव में जीव सम्बन्धी पारिणामिक-भावों को लगाना और अजीव में अजीव सम्बन्धी पारिणामिक भावों को लगाना । अर्थात् जिसका जिस रूप में परिणमन हो रहा है वह उसका पारिणामिकभाव कहलाता है। यह जीव है तो यह जीव ही रहेगा। हम किसी जीव को कभी अजीव नहीं बना सकते, हम उसके लिए अजीवपना
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जीवत्व
( चेतना परिणाम )
पारिणामिक भाव
अभव्यत्व (सम्यग्दर्शनादि प्रकट न होने की
योग्यता)
भव्यत्व (सम्यग्दर्शनादि प्रकट होने की योग्यता)