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जीव-विज्ञान
अनात्मभूत
उपयोगो लक्षणम्।।8।।
अव्याप्ति
जैसे जीव का लक्षण अर्थ-जीव का लक्षण उपयोग है।
कंवलज्ञान आत्मा के चैतन्य गुण से सम्बन्ध रखने वाले परिणाम को उपयोग
अतिव्याप्ति (लक्षणाभास)
जीव का लक्षण कहते हैं। उपयोग जीव के
अमूर्तिक अतिरिक्त, अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता।
असम्भव
जीव का लक्षण जीव का लक्षण उपयोग
स्पर्श,रसगंध,वर्ण, है। जितने भी जीव हैं वे सभी इसी से जी रहे हैं। यही लक्षण उनकी पहिचान कराता है कि वे जीव हैं। (( आत्मभूत लक्षण) उपयोग का अर्थ होता है-चेतना का वह परिणाम जो अपने अन्तरंग कारण के द्वारा भी उत्पन्न होता है और बाहरी कर्मों के क्षय, क्षयोपशम आदि से भी उत्पन्न होता है। वह आत्मा का परिणाम ही उपयोग कहलाता है। एक तरह से हम यह भी कह सकते हैं, "यह आत्मा की क्रिया है" यह क्रिया अनवरत रूप से चलती रहती है। और इस क्रिया में कुछ कर्मों का भी योगदान रहता है जिसके कारण यह आत्मा अपने उपयोग को निरन्तर किसी न किसी रूप में करता रहता है। प्रत्येक आत्म-द्रव्य में यह लक्षण पाया जाता है। इसे उपयोग कहते हैं। यह चेतना का लक्षण है। इन उपयोगों के जब हम भेद समझेंगे तो हमें इसका विस्तार और समझ आएगा।
उपयोग के भेद
स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः।।9।। अर्थ-वह उपयोग दो प्रकार का है 1.ज्ञानोपयोग, 2.दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय, केवल ये पाँच ज्ञान, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये तीन अज्ञान के भेद से आठ प्रकार का है। तथा दर्शनोपयोग चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन के भेद से चार प्रकार का है।
उपयोग दो प्रकार का है-एक ज्ञानोपयोग है और एक दर्शनोपयोग है। ये दोनों ही उपयोग आत्मा के चैतन्य परिणाम कहलाते हैं । वस्तुतः, देखा जाए तो आत्मा के चैतन्य परिणामों में इन दोनों ही उपयोगों की गिनती आती है या यह भी कह सकते हैं आत्मा चैतन्य रूप से अगर कोई क्रियाएँ करता है तो वह दो ही प्रकार की होती हैं। एक ज्ञानोपयोग की क्रिया और दूसरी दर्शनोपयोग की क्रिया। ज्ञानोपयोग की क्रिया तो जानने का काम करती है और दर्शनोपयोग की क्रिया देखने का काम करती है। जानना और देखना ये दोनों ही आत्मा के स्वाभाविक लक्षण हैं। ये दोनों ही उपयोग,
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