________________
७४
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
प्रवृत्ति नई न होती तो जिनवल्लभ को कंधे ठोकने की क्या जरुरत थी जब खास खरतरों का माननीय ग्रन्थ इस बात को प्रमाणित कर रहा है तो फिर दूसरे प्रमाणों की आवश्यकता ही क्या है? यह तो हुए खरतरों के घर के प्रमाणों की बात । अब आगे चलकर हम जैन शास्त्रों की ओर दृष्टिपात कर देखेंगे कि जैनागमों में भगवान् महावीर के कल्याणक पांच बतलाते हैं या छः?
जिनवल्लभसूरि ने जिस कल्पसूत्र के पाठ पर अपने नये मत की नींव डाली हैं पर वल्लभ उस पाठ के आशय को ही नहीं समझा है। देखिये
"पंच हत्थुत्तरे होत्था साइणा परिनिव्वुड़े" अर्थात् पंच हत्थुतरे और छट्ठा स्वाति नक्षत्र को देख कर छठ्ठा गर्भापहार कल्याणक की प्ररुपणा कर दी परन्तु श्री आचारांगसूत्र तथा कल्पचूर्णि वगैरह शास्त्रों ने नक्षत्र की गिनती करते हुए छ वस्तु बतलाई है न कि छ: कल्याणक। यदि जिनवल्लभ जम्बुद्वीप प्रज्ञप्तिसूत्र को देख लेता तो वहां ही समाधान हो जाता, कारण प्रस्तुत सूत्र में भी भगवान ऋषभदेव के लिये भी छः नक्षत्र कहा है।
"उसभेणं अरहा कोसलिए पंच उत्तरासाढ़े अभी च छटे होत्था" जैसे महावीर के पंच हत्थुत्तरा और छट्ठा स्वाति नक्षत्र बतलाया है वैसे ही ऋषभदेव के पंच उत्तराषाढा और छट्ठा अभीच नक्षत्र बतलाया है। यदि महावीर के छ: नक्षत्र होने से छ: कल्याणक माना जाय तो ऋषभदेव के छ: नक्षत्र बतलाये हैं वहाँ भी छ: कल्याणक मानना चाहिये । यदि ऋषभदेव के राज्याभिषेक को कल्याणक नहीं माना जाय तो महावीर के भी गर्भापहार को कल्याणक नहीं मानना चाहिये? पर यह तो सरासर अन्याय है कि ऋषभदेव के छ: नक्षत्र कहने पर भी राज्याभिषेक को छोड कर पांच कल्याणक मानना और महावीर के गर्भापहार जो नीच गौत्र के उदय से हुआ है जिसको कल्याणक मानना। लीजिये स्वयं शास्त्रकार इस विषय के लिये क्या कहते हैं
ण खलु एयं भूयं, ण भव्वं, ण भविस्सं, जण्णं अरहंता वा, चक्कवट्टी वा, बलदेवा वा, वासुदेवा वा, अंतकुलेसु वा, पंतकुलेसु वा, तुच्छकुलेसु वा, दरिद्दकुलेसु वा, किविणकुलेसु वा, भिक्खागकुलेसु वा, माहणकुलेसु वा, आयाइंसु वा, आयाइंति वा, आयाइस्संति वा ॥१७॥ एवं खलु अरिहंता वा, चक्कवट्टी वा, बलदेवा वा, वासुदेवा वा, उग्गकुलेसु वा, भोगकुलेसु वा, राइण्णकुलेसु वा, इक्खागकुलेसु वा, खत्तिअकुलेसु वा, हरिवंसकुलेसु वा, अण्णयरेसु वा, तहप्पगारेसु विसुद्धजाइकुलवंसेसु आयाइंसु वा, आयाइंति वा, आयाइस्संति वा ॥ १८ ॥ अत्थि पुण एसेवि भावे लोगच्छेरयभूए अणंताहिं