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कि वल्लभ की यह प्रवृत्ति उत्सूत्र रुप नयी थी कि सब संयति इसका विरोध करने को मंदिर के द्वार पर आकर उपस्थित हो गये।
इन उपरोक्त शब्दों के आशय से पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि वल्लभ ने महावीर के गर्भापहार नामक छट्ठा कल्याणक की उत्सूत्र प्ररुपणा कर तीर्थंकर गणधर और पूर्वाचार्यों की आज्ञा का भंग कर वज्र पाप की पोट अपने सिर पर उठाई है, इतना ही क्यों पर कई भद्रिक जीवों को भी अपने अनुयायी बना कर उनको भी संसार में डुबा दिया है।
अभयदेवसूरयः स्वर्गं गताः प्रसन्नचन्द्राचार्येणापि प्रस्तावाऽभावात् गुरोरादेशो न कृतः केवलं श्रीदेवभद्राचार्याणामग्रे भणितं सुगुरूपदेशतः प्रस्तावे युष्माभिः सफलीकार्यः । इतश्च पत्तनादात्मानातृतीयः सिद्धान्तविधिना जिनवल्लभगणिश्चित्रकूटे विहृतः तत्र चामुंडाप्रतिबोधता साधारणश्राद्धस्य परिग्रहप्रमाणप्रदतं श्रीमहावीरस्य गर्भापहारऽभिधं षष्टं कल्याणकं प्रकटितं । क्रमेण साधारणश्रावकेण श्रीपार्श्वनाथ श्रीमहावीरदेवगृहद्वयं कारितं ।
___ गणधर सार्द्धशतक लघुवृत्ति __इस लेख में स्पष्ट लिखा है कि जिनवल्लभ ने चित्तौड में जाकर चामुंडादेवी को बोध दिया, साधारण श्रावक को परिग्रह का परिमाण कराया और महावीर का गर्भापहार नामक छठा कल्याणक प्रगट किया इत्यादि। इससे निश्चय हो जाता है कि जिनवल्लभ ने यह जैनआगमों के एवं पूर्वाचार्यों की आज्ञा को भंग कर गर्भापहार नाम का छठा कल्याणक प्रगट किया, जिसको उत्सूत्र प्ररुपणा कही जा सकती है। यदि ऐसा न होता तो प्रगट शब्द की जरुरत ही क्या थी?
असहायेणाऽवि विहि पसहिउ जो न सेससरीहिं। लोअणपहेवि वच्छइ पुण जिणमयण्णूणं ॥ १२२॥
व्याख्या। ततो येन भगवता असहायेनापि एकाकिनापि परकीयसहायनिरपेक्षं अपिविस्मये अतीवाश्चर्यमेतद्विधिरागमोक्तः षष्ठकल्याणकरुपश्चेत्यादि विषयःपूर्वप्रदर्शितश्च प्रकारः प्रकर्षेणेदमित्थमेव भवति योऽत्रार्थेऽसहिष्णुः सवावदीत्विति स्कंधास्फालनपूर्वकं साधितः सकल प्रत्यक्षं प्रकाशितः यो न शेषसूरीणामज्ञात सिद्धान्तरहस्यानामित्यर्थः लोचनपथेऽपि दृष्टिमार्गे आस्तां श्रुतिपथे व्रजति याति । उच्यते पुनर्जिनमतज्ञैर्भगवद्वचन वेदिभिरिति ।
गणधरसार्द्धशतक मूलगाथा १२२ तथा बृहद् वृत्ति इस लेख में भी साफ साफ लिखा है कि जिनवल्लभ ने चित्तौड में कंधा ठोक कर महावीर के गर्भापहार नामक छठा कल्याणक की प्ररुपणा की, यदि यह