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~~~~~~ गृहीतनिर्मलपूजोपकरणा गुरुणा सह देवगृहे गंतुं प्रवृत्ताः। ततो देवगृहस्थितयार्यिकया गुरुसमुदायेनागच्छतो गुरून्दृष्ट्वा पृष्ठं को विशेषोऽद्यके श्राद्धेनापि कथितं वीरगर्भापहारषष्ठकल्याणककरणार्थमेते समागच्छंति, तया चिंतितं पूर्वं केनापि न कृतमेतदेतेऽधुना करिष्यन्तीति न युक्तं । पश्चा-त्संयती देवगृहद्वारे पतित्वा स्थिता द्वारप्राप्तान् प्रभूनवलोक्योक्तमेतया दुष्टचित्तया मया मृतया मृतया यदि प्रविशत तागप्रीतिकं ज्ञात्वा निर्वर्त्य स्वस्थानं गताः पूज्याः ! श्राद्धैरुक्तं भगवन्नस्माकं बृहत्तराणि सदनानि संति, ततएकस्य गृहोपरि चतुर्विंशतिपट्टकं धृत्वा देववंदनादिसर्वं धर्मप्रयोजनं क्रियते, षष्ठकल्याणकमाराध्यते । गुरुणा भणितं तत्किमत्रायुक्तं। तत आराधितं विस्तरेण कल्याणकं"
गणधर सार्द्धशतक अन्तर्गत प्रकरण, पृष्ठ १८ यही बात जिनपतिसूरि का शिष्य सुमतिगणि ने गणधर सार्धशतक की बृहद् वृत्ति में लिखी हैं :
इसका भावार्थ यह है कि जिनवल्लभ को आश्विनकृष्ण त्रयोदशी के दिन श्री महावीर के गर्भापहारकल्याणक का लेख प्राप्त हुआ। तब श्रावकों के सामने जिनवल्लभ कहने लगा-भो ! श्रावको ! आज श्रीमहावीर देव का गर्भापहार नामक छट्ठा कल्याणक जैसे 'पंचहत्थुत्तरे होत्था साइणापरिनिव्वुडे' ऐसा प्रकट अक्षर सिद्धान्त में प्रतिपादित है, इसकी आराधना विधि के लिये यहांविधि चैत्य तो है नहीं इस लिये चैत्यवासियों के 'चैत्य (मंदिर) में चल कर यदि देववंदन करें तो अच्छा होगा। गुरुमुख के वचन सुन कर श्रावकों ने कहा कि आप करें उसमें हमारी सम्मति है। बाद गुरु आदेश से वे सब श्रावक निर्मलशरीर, निर्मलवस्त्र और निर्मल पूजोपकरण लेकर गुरु के साथ मन्दिर जाने को प्रवृतमान हुये, पर उस मन्दिर में एक आर्यका थी, उसने श्रावकों के साथ गुरु को आते हुए देख कर पूछा कि आज क्या विशेषता है? इस पर किसी ने कहा कि वीर के गर्भापहार नामक छटे कल्याणक की आराधना के लिये हम सब आ रहे हैं। इस पर उस आर्यका ने सोचा कि पूर्व किसी ने भी छट्ठा कल्याणक न तो कहा और न देववन्दनादि किया है अतः यह अयुक्त है। जब यह बात अन्य संयतियों को खबर हुई तो वे लोग देवगृहद्वार पर आकर खड़े हो गये और जिनवल्लभ की उत्सूत्र प्ररुपणा का सख्त विरोध करने लगे इत्यादि। फिर भी प्रभु के दर्शन करने पर वे शान्त होकर अपने १. जिस चैत्य को जिनवल्लभ ने अवन्दनीक ठहराया था आज उस चैत्य को वन्दन करने
का उपदेश दे रहा है।