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प्रश्नचंद्रसूरि को क्यों कहा था कि वल्लभ को मेरा पट्टधर बनाना? शायद इस लेख के लिखने वाले का इरादा अभयदेवसूरि पर मायाचारी या समुदाय में फूट डलवाने का कलंक तो लगाना नहीं था न?
जिनवल्लभ ने न ली किसी के पास दीक्षा, न किया योगोद्वाहन, अतः वह मण्डली में बैठने योग्य भी नहीं था तो उसको सूरि पद देकर अभयदेवसूरि का पट्टधर कैसे बनाया जा सकता?
। खैर प्रश्नचन्द्रसूरि को एकान्त में अभयदेवसूरि कह भी गये हों तो फिर प्रश्नचंद्रसूरि ने वल्लभ को आचार्य क्यों नहीं बनाया? शायद यह कहा जाय कि प्रश्नचंद्रसूरि की आयु अधिक नहीं थी और वे देवभद्राचार्य को कह गये थे कि वल्लभ को अभयदेवसूरि का पट्टधर बना देना, पर देवभद्राचार्य का दीर्घ आयुष्य होने पर भी २९ वर्ष तक वल्लभ अकेला भ्रमण करता रहा, पर देवभद्र ने उनको आचार्य नहीं बनाया। इसका क्या कारण था? वास्तव में न तो अभयदेवसूरि ने प्रश्नचंद्रसूरि को कहा था और न प्रश्नचंद्रसूरि ने देवभद्र को ही कहा था। केवल पिछले लोगों ने जिनवल्लभ के निगुरापने के कलंक को छिपाने के लिये यह झूठमूठ ही लिख डाला है कि अभयदेवसूरि ने प्रश्नचंद्र को एकान्त में कहा और प्रश्नचंद्रसूरि ने देवभद्र को कहा कि वल्लभ को अभयदेवसूरि का पट्टधर बनाना जिससे अभयदेवसूरि के पट्टपर दो आचार्य होकर आपस में फूट पड़ जाय । क्योंकि अभयदेवसूरि के पट्टधर वर्धमानसूरि विद्यमान थे और यह बात स्वयं वल्लभ ने भी लिखी है।
अभयदेवसूरि के स्वर्गवास के बाद २९ वें वर्ष अर्थात् वि. सं. ११६४ में वल्लभ चित्तौड़ गया था और वहां वल्लभ ने चितौड़ के किले पर चातुर्मास किया। वहां पर वल्लभ ने क्या किया जिसके विषय में खास खरतरों के माननीय ग्रन्थ गणधर सार्द्धशतक अन्तर्गत प्रकरण व बृहद्वृत्ति बतलाती है कि :
"तत्र कृतचातुर्मासिककल्पानां श्रीजिनवल्लभवाचनाचार्याणामाश्विनमासस्य कृष्णपक्षत्रयोदश्यांश्रीमहावीरदेवगर्भापहारकल्याणकं समागतं । ततः श्राद्धानां पुरो भणितं जिनवल्लभगणिना। भोः श्रावका ! अद्य श्रीमहावीरस्य षष्ठं गर्भापहारकल्याणकं "पंचहत्थुत्तरेहोत्था साइणा परिनिव्वुडे" इति प्रकटाक्षरैरेवसिद्धान्ते प्रतिपादनादन्यच्च तथाविधं किमपि विधिचैत्यं नास्ति, ततोऽत्रैव चैत्यवासिचैत्ये गत्वा यदिदेवा वंद्यते तदा शोभनं भवति, गुरुमुखकमलविनिर्गतवचनाराधकैः श्रावकैरुक्तं भगवन् ययुष्माकं सम्मतं तत्क्रियते, ततः सर्वे पौषधिकाः श्रावका सुनिर्मलशरीरा निर्मलवस्त्रा