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अर्थात् आसिका दुर्ग में कुर्चपुरागच्छीय जिनेश्वरसूरि चैत्यवासी आचार्य रहता था। उनके उपाश्रय में बहुत से श्रावकों के लड़के पढ़ते थे। उसमें एक वल्लभ नामक लड़का ऐसा भी था कि जिस का पिता तो गुजर गया था और उसकी माता ने लड़के को वहाँ पढ़ने के लिये भेजा था।... जिनेश्वरसूरि ने उस बिना बाप के लड़के को दाखें, खजूर, मोदक वगैरह से प्रलोभन कर शिष्य बनाने का निश्चय कर लिया। जब उसकी माता ने कुछ कहना सुनना किया तो उसको ५०० द्रव्य मूल्य का देकर उस लड़के को दीक्षा दे दी और उसका नाम वल्लभ रख दिया। इससे पाया जाता है कि वल्लभ ने वैराग्य से दीक्षा नहीं ली पर केवल दाखें, खजूरादि खाने पीने के लिये ही दीक्षा ली थी तथा उस लड़के की माता को भी एक छोटासा लड़के का मूल्य पाच सौ द्रव्य हाथ लग गया। इस प्रकार मूल्य के शिष्यों से शासन को क्या क्या नुकसान होता है वह आगे चल कर आप स्वयं
पढ़ लेंगे।
जिस गुरुने वल्लभ को दीक्षा देकर पढ़ा लिखा कर थोड़ासा होशियार किया, बाद उसी गुरु से क्लेश कर गुरु को छोड़ कर वल्लभ वहाँ से निकल गया। कहा है कि :
जिणवल्लह कोहाओ कुच्चयरगणाओ खरयरया (वृद्ध-सं. पट्टावली)-जिनवल्लभ क्रोधादितिवचनेन जिनवल्लभो मूलोत्सूत्रप्ररूपको दर्शितः क्रोध शब्देन निजगुरुणा सह कलहः सूचितः तेनायं निजगुरुणा चैत्यवासी जिनेश्वरेण सह कलहं कृत्वा निर्गतो न पुनर्वैराग्यरङ्गात् ।
प्रवचन परीक्षा, पृष्ठ ३१४ मूल्य का खरीदा हुआ शिष्य इससे अधिक क्या कर सकता है ? खैर, वल्लभ गुरु को छोड़ कर खरतरों के मतानुसार अभयदेवसूरि के पास आया । अभयदेवसूरि ने अपनी उदारवृत्ति से वल्लभ को थोड़ा बहुत आगमों का ज्ञान करवाया, पर उस समय अभयदेवसूरि को यह स्वप्न में भी ख्याल नहीं था कि मैं आज इस चैत्यवासी वल्लभ को ज्ञान देता हूँ वह आगे चल कर ‘पयपानं भुजंगानां केवलं विष वर्धनम्' अर्थात् वल्लभ इस प्रकार उत्सूत्र की प्ररुपणा कर शासन में भेद डाल कर नया मत निकालेगा।
एक समय का जिक्र है कि अभयदेवसूरि का अन्त समय नजदीक था उस
१. जिनवल्लभ ने कुर्चपुरा गच्छ को छोड़ कर अपना विधिमार्ग नामक नया मत निकाला।
आगे चलकर उस विधिमार्ग का रुपान्तर नाम खरतर कहलाया । अतः पट्टावलीकार का आशय खरतर शब्द से विधिमार्ग का ही समझना चाहिये।