________________
६२
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
~
उदयउ श्रीउद्योतनसूरि, वर्धमान विद्याभरपुरी । सूरि जिनेश्वर सुरतरु समो, श्रीजिनचन्द्रसूरीश्वर नमई ॥
खरतर पट्टावली जै. ऐ. का. स., पृष्ठ २२७ खरतर गच्छि वर्धमान, जिनेश्वरसूरि गुरो । अभयदेवसूरि जिनवल्लभजिनदत्तसूरि पवरो ॥
ख. प. जै. ऐ. का. स., पृष्ठ ११ सुविहिय चुडामणि मुणिणो खरतर गुरुणो थुणस्सामि । श्रीउज्जोयण वद्धमाण सिरि सूरिजिणेसरो ॥
ख. प. जै. ऐ. का. स., पृष्ठ २४ पणमवि केवल लच्छिवरं चउवीसमउ जिणचन्दो । गाइसु खरतर जुगपवर, आणि सुमन आनन्दो । अहे पहिलज जुगवर जगि जयउ श्रीसोहमस्वामि ।
ख. प. जैन ऐ. का. स., पृष्ठ २१५ पणमिव वीर जिनन्द चन्द कपसुकय पवेसो खरतर सुरगुरु गच्छ स्वच्छ गणहर पभणेसो तसु पय पंकय भमर समरसजि गोयमगणहर तिणि अनुकमी सिरि नेमिचंद मुणिगुणिगणुमुणिहर
ख. प. जैन ऐ. का. सं., पृष्ठ ३१४ उपरोक्त खरतरों के पूर्वजों के प्रमाणों को आधुनिक खरतर सत्य समझते हैं तो केवल जिनेश्वरसूरि को ही खरतर बिरुद मिला कहना असत्य साबित होता है, क्योंकि जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्धमानसूरि और वर्धमानसूरि के गुरु उद्योतनसूरि भी खरतर थे, इतना ही क्यों पर सौधर्म और गौतम गणधर भी खरतर ही थे फिर यह खरतर की वरमाला एक जिनेश्वरसूरि के गले में ही क्यों डाली जाती है ?
यदि खरतर लोग एक कदम आगे बढ़ जाते तो वे भगवान महावीर को भी खरतर बना सकते थे, पर समझ में नहीं आता है कि खरतरों ने यह भूल क्यों की होगी?
वाह रे खरतरो ! मिथ्या लेख लिखने की भी कुछ हद-मर्यादा होती है, पर तुम लोगों ने तो मर्यादा का भी उल्लंघन कर इस प्रकार मनःकल्पित लेख लिख डाला है कि जिसके न तो कोई सिर है और न कोई पैर ही है।
बिचारे खरतरों में इतनी अकल ही कहां थी कि हम जिनेश्वरसूरि के लिए खरतर बिरुद का कल्पित कलेवर तैयार करते हैं तो पहले इनके समय का तो ठीक