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जिनदत्तसूरि से हुई है, जिसको मैं आगे चल कर तीसरे भाग में बतलाऊँगा ।
खरतरों ने केवल एक जिनेश्वरसूरि को ही खरतर कहने में बड़ी भारी भूल की है। यदि हमारे खरतर भाई अपने पूर्वजों के बनाये अर्वाचीन पट्टावल्यादि ग्रन्थों को ठीक पढ़ लेते तो खरतर बिरुद की वरमाला जिनेश्वरसूरि के गले में नहीं डाल कर वर्धमानसूरि, उद्योतनसूरि ही नहीं पर गणधर सौधर्माचार्य और गुरु गौतमस्वामि के गले में डालने का सौभाग्य प्राप्त कर लेते और इस बात के प्रमाण भी खरतरों के पास काफी थे और वे भी खास खरतरों के पूर्वजों के रचे हुये ग्रन्थों के कि जिसमें किसी खरतर को शंका करने का स्थान ही नहीं मिलता, जैसे कि :
श्रीवीरशासने क्लेशनाशने जयिनि क्षितौ । सुधर्मस्वाम्यपत्यानि गणाः सन्ति सहस्त्रशः ॥ १ ॥ गच्छः खरतरस्तेषु समस्ति स्वस्ति भाजनम् । यत्राभूवन् गुणजुषो गुरवो गतकल्मषा ॥ २ ॥ श्रीमानुद्योतनः सूरिर्वर्धमानो जिनेश्वरः । जिनचन्द्रोऽभयदेवो नवाङ्गवृति कारकः ॥ ३ ॥
श्रीआचारांग सूत्र दीपिका, कर्ता-जिनहंससूरि इस लेख में जिनहंससूरि ने उद्योतनसूरि एवं वर्धमानसूरि को खरतर लिखा है। आगे और देखिये
श्री महावीरतीर्थे श्रीसुधर्मस्वामिसन्ताने श्रीखरतरगच्छे श्रीउद्योतनसूरिः श्रीवर्धमानसूरिः श्रीजिनेश्वरसूरि श्रीजिनचन्द्रसूरि श्रीअभयदेवसूरि श्रीजिनवल्लभसूरि श्रीजिनदत्तसूरि श्रीजिनचन्द्रसूरि श्रीजिनपतिसूरि श्रीजिनेश्वरसूरिरित्यादियावत्तत्पट्टालङ्कारश्रीजिनभद्रसूरिराज्येश्रीजेसलमेरूमहादुर्गे श्रीचचिगदेवे पृथ्वीशे सति सं. १५०५ वर्षे तपः पट्टिका कारिता।
जैसलमेर का शिलालेख, प्र. प., पृष्ठ १८६ इस लेख में भी उद्योतनसूरि को खरतरगच्छी होना लिखा है
चन्द्रकुले श्रीखरतरविधिपक्षे-"श्रीवर्धमानाभिधसूरिराजो, जातः क्रमादर्बुदपर्वताग्रे । मन्त्रीश्वरश्रीविमलाभिधानः, प्राचीकटत् यद्वचनेन चैत्यमित्यादि ॥१॥
जैसलमेर का शिलालेख, प्र. प., पृष्ठ २८६ इस लेख में वर्धमानसूरि को खरतर होना लिखा हैप्रणमी वीरजिणेसरदेव, सारइ सुरनर किन्नर सेव । श्रीखरतर गुरु पट्टावली, नाममात्र प्रभणु मन रली ॥