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कि न तो जिनेश्वरसूरि राजसभा में गये, न चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ और न राजा ने खरतर बिरुद ही दिया।
यदि जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद मिला होता तो उनके बाद अनेक आचार्य हुये और उन्होंने अनेक ग्रन्थों का निर्माण भी किया, पर उन्होंने किसी स्थान पर यह नहीं लिखा है कि जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद मिला था। खास अभयदेवसूरि ने अपनी बनाई टीकाओं में जिनेश्वरसूरि को चन्द्रकुल के लिखा है। (देखो खरतरमतोत्पत्ति भाग पहला) आगे चल कर हम जिनवल्लभसूरि के ग्रन्थों को देखते हैं कि उन्होंने कहीं पर जिनेश्वरसूरि को खरतर लिखा है या नहीं?
न चकोरदयितमलमदोषमतमोनिरस्तसद्वृत्तम् । नालिककृतावकाशोदयमपरं चांद्रमस्तिकुलम् ॥१॥ तस्मिन् बुधोऽभवदसङ्गविहारवर्ती,
___ सूरिजिनेश्वर इति प्रथितोदयश्रीः । श्रीवर्धमानगुरुदेवमतानुसारी
हारीभवन् हृदि सदा गिरिदेवतायाः ॥२॥ "जिन वल्लभीयप्रशस्त्यपरनाम्न्यामष्टसप्ततिकायां"
प्र. प., पृ. २९४ जिनवल्लभसूरि के उपरोक्त लेख में शास्त्रार्थ एवं खरतर बिरुद की गंध तक भी नहीं है। यदि जिनवल्लभ ने चैत्यवासियों के शास्त्रार्थ की विजय में खरतर बिरुद मिलना सुन लिया होता तो वह अपने संघ पट्टक जैसे ग्रन्थ में एवं जिनेश्वरसूरि के साथ यह बात लिखे बिना कभी नहीं रहता पर क्या करे उसके समय खरतर शब्द का जन्म तक भी नहीं हुआ था।
आधुनिक खरतर लोग महाप्रभाविक अभयदेवसूरि को खरतर बनाने का मिथ्या प्रयत्न कर रहे हैं परन्तु अभयदेवसूरि के विषय में तो मैंने प्रथम भाग में विस्तार से लिख दिया कि वे खरतर नहीं पर चन्द्रकुल में थे। इतना ही क्यों पर आपकी संतान परम्परा में भी कोई खरतर पैदा नहीं हुआ था। देखिये खास अभयदेवसूरि के पट्टधर वर्धमानसूरि हुये हैं वे क्या लिखते हैं ? चंदकुले चंदजसो दुक्करतवचरणसोसिअसरीरो । अप्पपडिबद्धविहारो सूरुव्व विणिग्गयपयावो ॥ १ ॥ एणपरिग्गहरहिओ विविहसारंगसंगहो निच्चं । सयलक्खविजयपयडोऽवि एक्कसंसारभयभीओ ॥ २ ॥ इंदिअतुरिअतुरगमवसिअरणसुसारही महासत्तो ।