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इत्याकर्ण्यतपस्वीन्द्रः, प्राह प्रहसिताननः ॥ ८४ ॥ गुणिनामर्चनां यूयं, कुरुध्वं विधुतैनसाम् । सोऽस्माकमुपदेशानां, फलपाकः श्रियां निधिः ॥ ८५ ॥ शिव एव जिनो, बाह्यत्यागात्परपदस्थितः । दर्शनेषु विभेदो हि, चिह्न मिथ्यामतेरिदम् ॥ ८६ ॥ निस्तुषव्रीहिहट्टानां, मध्येऽत्र (त्रि प्र.) पुरुषाश्रिता। भूमिः पुरोधसा ग्राह्योपाश्रयाय यथारुचि ॥ ८७ ॥ विघ्नः स्वपरपक्षेभ्यो, निषेध्यः सकलो मया । द्विजस्तच्च प्रतिश्रुत्य, तदाश्रयमकारयत् ॥ ८८ ॥ ततःप्रभृति संजज्ञे, वसतीनां परम्परा । महद्भिः स्थापितं वृद्धिमश्नुते नात्र संशयः ॥ ८९ ॥ श्रीबुद्धिसागरसूरिश्चेकव्याकरणं नवम् । सहस्राष्टकमानं तच्छ्रीबुद्धिसागराभिधम् ॥ ९० ॥ अन्यदाविहरन्तश्च, श्रीजिनेश्वरसूरयः । पुनारापुरीं प्रापुः, सपुण्यप्राप्यदर्शनाम् ॥ ९१ ॥
"प्रभावक चरित्र, पृष्ठ २७५" भावार्थ-आचार्य वर्धमानसूरि ने जिनेश्वर बुद्धिसागर को योग्य समझकर सूरि पद दिया और उनको आज्ञा दी कि पाटण में चैत्यवासी आचार्य सुविहितों को आने नहीं देते हैं, अतः तुम जाकर सुविहितों के ठहरने के द्वार खोल दो। गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि विहार कर क्रमशः पाटण पहुँचे । घर घर में याचना करने पर भी उनको ठहरने के लिये उपाश्रय नहीं मिला। उस समय पाटण में राजा दुर्लभ राज करता था और सोमेश्वर नाम का राजपुरोहित भी वहाँ रहता था। दोनों मुनि चलकर उस पुरोहित के यहां आये और आपस में वार्तालाप होने से पुरोहित ने उनका सत्कार कर ठहरने के लिये अपना मकान दिया क्योंकि जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि जाति के ब्राह्मण थे। अतः ब्राह्मण ब्राह्मण का सत्कार करे यह स्वाभाविक बात है।
इस बात का पता जब चैत्यवासियों को लगा तो उन्होंने अपने आदमियों को पुरोहित के मकान पर भेजकर साधुओं को कहलाया कि इस नगर में चैत्यवासियों की आज्ञा के बिना कोई भी श्वेताम्बर साधु ठहर नहीं सकते हैं, अतः तुम जल्दी से नगर से चले जाओ इत्यादि। आदमियों ने जाकर सब हाल