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पूर्वोक्त बात कहने वालों का अभिगम शायद यह हो कि यह शास्त्रार्थ केवल उपकेशगच्छ वालों के साथ ही हुआ होगा। कारण कँवला आजकल उपकेशगच्छ वालों को ही कहते हैं। इस शास्त्रार्थ के समय पाटण में अनेकाचार्यों के उपाश्रय
और वहाँ बहुत आचार्य व साधु रहा करते थे, जिनमें सर्वाऽग्रणी केवल उपकेशगच्छ वालों को ही माना जाता हो और शास्त्रार्थ भी उन्हीं के ही साथ हुआ हो, खैर यदि थोड़ी देर के लिये खरतरों का कहना मान भी लिया जाय कि दुर्लभ राजा की राजसभा में शास्त्रार्थ हुआ और खरा रहने वाले खरतर और हार जाने वाले कँवला कहलाये, पर यह बात बुद्धिगम्य तो होनी चाहिए? कारण दुर्लभ राजा स्वयं बड़ा भारी विद्वान् एवं असाधारण पुरुष था, संस्कृत साहित्य का प्रौढ़ पण्डित एवं पूर्ण प्रेमी था और यह शास्त्रार्थ भी विद्वानों का था, फिर जय और पराजय के उपलक्ष्य में बिरुद देने को उस समय के कोषों में कोई ऐसा सुन्दर और शुद्ध शब्द नहीं था जो इन ग्रामीण भाषा के अर्थशून्य असभ्य शब्दों को जय के लिए खरतर और पराजय के लिये कवला जैसे शब्दों को उपहार स्वरुप में स्थान मिला? परन्तु वस्तुतः देखा जाय तो यह बात ऐसी नहीं है। क्योंकि कुदरत का नियम है कि कोई भी विरुद्ध अर्थवाची प्रतिपक्षी दो शब्द बराबर विरुद्ध अर्थ में ही आते हैं। जैसे उदाहरणार्थ देखिये :
धर्म-अधर्म कठोर-कोमल दिन-रात सत्य-असत्य करड़ा-कवला मीठा-खारा जय-पराजय दया-निर्दयी लोक-अलोक खरा-खोटा सुख-दुःख
भला-बुरा अब जरा सोचना चाहिये कि 'खरा का प्रतिपक्षी शब्द' खोटा होना चाहिये या कँवला? खोटा का अर्थ होता है झूठा (असत्य) और कँवला का अर्थ होता है नरम (कोमल)। जब कँवला का अर्थ कोमल है तो उसका प्रतिपक्षी "करड़ा" शब्द जिसका अर्थ कठोर होता है, यह उपयुक्त है। हाँ ! लौकिक में 'खरतरा' शब्द जरुर विशेष कठोरता का द्योतक हो सकता है परन्तु 'खरा' शब्द नहीं, जब खरा शब्द से यहाँ कठोरता अर्थ न ले और सच्चा यह अर्थ लिया जाय तो यौगिक शब्द 'खरतर' में भी 'खरातर' ऐसा होना चाहिए और उसका प्रतिपक्षी 'खोटा' याने "खोटातर" ही होना चाहिए, पर 'कवला' नहीं। खर का असली अर्थ उग्र याने तेज, तीक्ष्ण, कठोर है न कि सत्य (सच्चा)। यदि इसका अर्थ थोड़ी देर के लिए कठोर भी मान लें तो फिर आपका मनगढन्त आशाद्रुम अकाल ही में उखड़