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खरतर शब्द को प्राचीन प्रमाणित करने वाला एक लेख खरतरों को फिर अनायास मिल गया है और वह पल्ह कवि कृत खरतर पट्टावली का है। जैसा कि
देव सूरि पहु नेमि वहु, वहु गुणिहि पसिद्धउ ।
उज्योयणु तह वद्धमाणु, खरतर वर लद्धउ॥
इस लेख के कवि ने लिखा है कि 'खरतर बिरुद' प्राप्त करने वाले जिनेश्वरसूरि नहीं किन्तु उद्योतनसूरि और वर्धमानसूरि हैं। जिन लोगों का कहना था कि जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में दुर्लभराज ने खरतरबिरुद इनायत किया था यह तो बिलकुल मिथ्या ठहरता है। क्योंकि जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्धमानसूरि और वर्धमानसूरि के गुरु उद्योतनसूरि थे। यदि उद्योतनसूरि को ही "खरतर बिरुद" मिल गया था तो फिर जिनेश्वरसूरि के लिए शास्त्रार्थ की विजय में खरतर बिरुद मिला कहना तो स्वयं असत्य साबित होता है, पर यह विषय भी विचारनीय हैं क्योंकि पल्ह कवि कृत खरतर पट्टावली और उनका खुद का समय भी विक्रम की बारहवीं शताब्दी में जिनदत्तसूरि के समकालीन है और यह कविता भी जिनदत्तसूरि को ही लक्ष्य में रख कर बनाई गई है। फिर भी कवि का हृदय ही संकीर्ण था क्योंकि उसने खरतर की महत्ता बताने को खरतरबिरुद का संयोग श्रीउद्योतनसूरि से ही किया। अच्छा तो यह होता कि कवि श्रीमहावीर प्रभु के पट्टधर सौधर्माचार्य को ही खरतर बिरुद से विभूषित कर देता। और ऐसा करने से सारा झगड़ा-बखेड़ा स्वयं मिट जाता और जैनसमाज सब का सब खरतरगच्छ का उपासक ही बन जाता ! वास्तव में तो कविता का आशय जिनदत्तसूरि को ही खरतर कहने का था। यदि ऐसा न होता तो उद्योतनसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि और जिनपतिसूरि तक के अनेक ग्रन्थ और शिलालेख मिलते हैं जिनमें कतिपय का उल्लेख तो हम उपर कर आये हैं कि जिनेश्वर के बाद ३०० वर्षों तक तो खरतर शब्द का किसी ने भी उल्लेख नहीं किया और एक अप्रसिद्ध अपभ्रंश भाषा के पल्ह नामक कवि ने उद्योतनसूरि को खरतर बिरुदधारक लिख दिया और खरतरों का उस पर यकायक बिना सोचे समझे विश्वास हो जाना यह सभ्य समाज को सन्तोषप्रद नहीं हो सकता।
कई अज्ञ लोगों का यह भी कथन है कि पाटण के राजा दुर्लभ की राजसभा में आचार्य जिनेश्वरसूरि और चैत्यवासियों के बीच शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें 'खरा' रहने वालों को 'खरतर' और हार जाने वालों को 'कँवला' कहा। और वह खरतर तथा कँवला शब्द आज भी मौजूद हैं।