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चन्द्रकुल के स्थापक आचार्य चन्द्रसूरि भगवान महावीर के १५वें पट्टधर थे और चन्द्रसूरि के १६ वें पट्टधर अर्थात् महावीर के ३१ वें पट्टधर आचार्य यशोभद्रसूरि हुए और इन यशोभद्रसूरि के चन्द्रकुल में दो शाखाएँ हुई जैसे कि :
आचार्य यशोभद्रसूरि
प्रद्युम्नसूरि
विमलचंद्रसूरि
मानदेवसूरि
देवसूरि
विमलचंद्रसूरि
नेमिचन्द्रसूरि
उद्योतनसूरि (वि. दशवीं शताब्दी | उद्योतनसूरि (वि. दशवीं शताब्दी) "इस शाखा में आगे चल कर | 'इस शाखा में आगे चल कर ४४ वें पट्टधर जगच्चन्द्रसूरि से | ४४ वें पट्टधर जिनदत्तसूरि से चन्द्रकुल का नाम तपागच्छ हुआ" | चन्द्रकुल का खरतर नाम हुआ'
उपर्युक्त वंशावलि से पाया जाता है कि उस समय उद्योतनसूरि नाम के दो आचार्य हुए होंगे। एक प्रद्युम्नसूरि की शाखा में विमलचंद्र के शिष्य और सर्वदेव के गुरु । दूसरे-विमलचंद्र शाखा में नेमिचन्द्र के शिष्य और वर्धमान के गुरु । यही कारण हैं कि तपागच्छ की पट्टावली में लिखा है कि उद्योतनसूरिने वडवृक्ष के नीचे सर्वदेवादि आठ आचार्यों को सूरिपद देने से वनवासी गच्छ का नाम वड़गच्छ हुआ। और खरतरगच्छ की पट्टावली में लिखा है कि वर्धमानादि ८४ शिष्यों को उद्योतनसूरि ने आचार्यपद देने से वडगच्छ नाम हुआ। अंचलगच्छ की शतपदी में इन से भिन्न कुछ और ही लिखा है। वहां लिखते हैं कि केवल एक सर्वदेवसूरि को ही वड़वृक्ष के नीचे आचार्य बनाने से वनवासी गच्छ का नाम वड़गच्छ हुआ १. तपागच्छ की पट्टावलि में चन्द्रसूरि को १५ वाँ पट्टधर लिखा है तब खरतर गच्छ की
कई पट्टावलियों में चन्द्रसूरि को १८ वें पट्टधर लिखा है। इसका कारण यह है कि खरतर पट्टावलीकार एक तो महावीर को प्रथम पट्टधर गिनते हैं। दूसरा आचार्य यशोभद्र के संभूतिविजय और भद्रबाहु दो शिष्य हुए। दोनों को क्रमशः ७-८ वा पट्ट गिना है। तीसरा आर्यस्थूलभद्र के महागिरि और सुहस्ती इन दोनों शिष्यों को भी क्रमशः दो पट्टधर गिन लेने से चन्द्रसूरि १८ वें पट्टधर हैं। इसमें कोई विरोध तो नहीं आता है। केवल गिनती की संख्या में ही न्यनाधिकता है।