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इस टीका में अभयदेवसूरि अपने को एवं जिनेश्वरसूरि को चन्द्रकुल के बताते हैं और अपनी रची हुई टीका महाविद्वान वादि विजयीता निर्वृत्तिकुल के द्रोणाचार्य (चैत्यवासी) से संशोधित कराई, ऐसा लिखते हैं। जिसके प्रत्युपकार में जिनवल्लभसूरि ने 'संघपट्टक' ग्रंथ में चैत्यवासियों को खूब फटकारा है। यहां तक कि उनकी मानी हुई त्रिलोक्य पूजनीय जिनप्रतिमा को मांस की बोटी की उपमा दी है और स्वयं आपने साधारण श्रावक से नया मन्दिर बनवाकर उसके द्वार पर पत्थर में संघपट्टक के ४० श्लोक खुदवाये थे, क्या यह सावध कार्य नहीं था ?
अब आगे चल कर ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र की टीका देखिये :"तस्याचार्य जिनेश्वरस्य मदवद्वादि-प्रतिस्पर्धिनः । तद्वन्धोरपि “बुद्धिसागर" इति ख्यातस्य सूरे(वि ॥ छन्दोबन्धनिबन्धबन्धुरवचः शब्दादिसल्लक्ष्मणः । श्रीसंविग्नविहारिणः श्रुतनिधेश्चारित्रचूड़ामणेः ॥ ८ ॥ शिष्येणाऽभयदेवाख्यसूरिणा विवृत्तिः कृता । ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य, श्रुतभक्त्या समासतः ॥ ९ ॥ आगे फिर श्रीऔपपातिक वृत्ति का अवलोकन करिये । चन्द्रकुल-विपुल-भूतल-युग-प्रवर-वर्धमान-कल्पतरोः । कुसुमोपमस्य सूरेर्गुण-सौरभ-भरित-भवनस्य ॥ १ ॥ निस्सम्बन्ध विहारस्य, सर्वदा श्री जिनेश्वराह्वस्य । शिष्येणाऽभयदेवाख्यसूरिणेयं कृता वृत्तिः ॥ २ ॥
इन टीकाओं में अभयदेवसूरि ने वर्धमानसूरि एवं जिनेश्वरसूरि को चन्द्रकुल के प्रदीप बताया है। यदि जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में "खरतरबिरुद" मिला होता तो इस महत्त्वपूर्ण बिरुद को छिपा कर नहीं रखते पर उसका उल्लेख भी कहीं न कहीं अवश्य करते; परन्तु उस समय "खरतर" भविष्य के गर्भ में ही अन्तर्निहित था।
आगे अब जिनवल्लभसूरि के ग्रन्थों की ओर जरा दृष्टि-पात कर देखिये कि "खरतर" शब्द कहीं उपलब्ध होता है या नहीं? जिनवल्लभसूरि कूर्चपुरीया गच्छ के चैत्यवासी जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे, उन्होंने चैत्यवास छोड़ कर किसी के पास दीक्षा तक भी नहीं ली थी तथा महावीर का गर्भापहार नामक छठा कल्याणक की उत्सूत्र प्ररुपणा कर विधिभाग नाम का नया मत निकाला, अतः चैत्यवासियों के प्रति उनका द्वेष होना स्वाभाविक ही था। यदि जिनेश्वरसूरि को चैत्यवासियों