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जैन महात्मा आपस में लड़ते झगड़ते एवं आपस में एक दूसरे की निंदा करते होंगे। जिनचन्द्र के शब्दों से बादशाह समझ गया कि यह खुद निन्दाखोर होगा अतः बादशाह ने कह दिया कि तुम तपों की निन्दा मत करो और वे तुम्हारी निन्दा न करें । यदि तुम्हारी और उनकी किताबों में निन्दा के शब्द हों तो तुम दोनों निकाल' दो इत्यादि
वाह रे ! बादशाह को उपदेश देने वाले जिनचन्द्र तुमने तो अपनी योग्यता का बादशाह को ठीक परिचय करवा दिया कि हम तपा खरतर आपस में लड़ते झगड़ते और परस्पर निंदा करते हैं। और आपस में निन्दा के ग्रन्थ लिख उसको चिरस्थायी बना रहे हैं। फिर तो बादशाह जिनचन्द्र की कदर करे इसमें आश्चर्य की बात ही क्या थी? कारण, जिनचन्द्र ने अपनी योग्यता का परिचय अपने शब्दों में ही करवा दिया था। जिनचन्द्र बादशाह को प्रतिबोध देने क्या आया था वह तो अपने घर के झगड़ों का इन्साफ करवाने के लिए आया था। पर इसको इसमें सफलता नहीं मिली। इतना ही क्यों पर बादशाह ने तो उल्टा जिनचन्द्र को प्रतिबोध दिया था कि तुम आपस में निन्दा मत करो।
कई खरतर यह भी कहते हैं कि जिनचन्द्रसूरि की योग्यता नहीं होती तो बादशाह उनको आठ दिन जीव हिंसा बन्द का फरमान कैसे देता? ।
यह फरमान जिनचंद्र की योग्यता पर नहीं मिला है। पर इसमें खास तो आचार्य विजयहीरसूरि की कृपा का ही कारण है। और जिनचंद्र ने जो प्रार्थना की है वह भी विजयहीरसूरि का आशय लेकर ही की थी। जो खास फरमान में बादशाह ने लिखा है कि :
बादशाह अपने फरमान में हक्म करता है कि जो झगडा ईश्वर भक्त हीरविजयसरि व विजयसेन सरि के सम्प्रदाय वालों से हआ था वह बादशाह के सामने अर्ज किया गया, बादशाह ने हुक्म फरमाया कि अब उनके अनुयायियों में किसी भी कारण से झगड़ा न हो और वह एक दूसरों की बदी (बुरी) न चाहे और जो कुछ उनके चेला धर्मसागर ने 'प्रवचन परीक्षा' नामक पुस्तक में उनकी बुराई लिखी हैं उनको उसमें से दूर कर दें और यदि उन्होंने अपनी पुस्तकों में उसके विरुद्ध कुछ लिखा है तो उसे वे भी दूर कर दें, क्योंकि ईश्वर भक्ति की पहली पूंजी (सीढ़ी) यह है कि ऐसे कार्यों से दूर रहे।
पु. ग्र. जि., पृष्ठ ३०५ बादशाह जिनचन्द्र की द्वेषपूर्ण बातें सुन समझ गया कि यह ओछी प्रकृति का मनुष्य है। इसकी विजयहीरसूरि के समान साधु प्रकृति नहीं, अतः उसने उसको प्रतिबोध करते हुए कहा कि तुम उनकी निन्दा न करो वे तुम्हारी न करेंगे। बताइये साधु अकबर था या जिनचन्द्र ?