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रहा था पर जिनचन्द्र ने सुना कि न तो आगरा में कर्मचन्द है और न बादशाह ही है पर जिनचन्द्र को तो बादशाह से मिलना था अतः वह चलकर दिल्ही आये वहां भी न कर्मचन्द न बादशाह । जिनचन्द्र ने सुना कि बादशाह इस समय लाहौर में हैं, इस हालत में जिनचन्द्रसूरि को लाहौर की ओर विहार करना पड़ा।
अहा-हा कलिकाल । तुमको भी नमस्कार है कि एक जमाना यह था कि जैनाचार्यों के पीछे पीछे राजा महाराज फिरते रहते थे। आज जमाना यह है कि बादशाह के पीछे पीछे जैनयति फिर रहे हैं।
अस्तु । जिनचन्द्रसूरि हापणई ग्राम में पहुँचे, वहाँ से लाहौर करीब ४० कोस के फासले पर था, जैसे विजयहीरसूरि का आगमन सुन बादशाह अकबर फतेहपुर तक सामने आया था वैसे जिनचन्द्र भी बादशाह की राह देख रहा था परन्तु बादशाह ने तो जिनचन्द्र की कदर पहले से ही कर ली थी कि उसने अपने धर्म के उसूल तोड़ कर चातुर्मास में विहार कर दिया था।
हापणई से आदमी ने जाकर कर्मचन्द को खबर दी, शायद कर्मचन्द ने बादशाह को कहा भी होगा पर इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया फिर भी "मान या न मान मैं तेरा महेमान" जिनचन्द्रसूरि लाहौर पहुँच गया।
कर्मचन्द लाहौर था। उसने दृष्टिराग के कारण जिनचन्द्रसूरि का स्वागत किया और समय पाकर जिनचन्द्र को ले जाकर बादशाह से मिलाया। अकबर एक पक्का मुत्सद्दी और परीक्षक था। जिनचन्द्रसूरि की वार्तालाप से समझ गया कि कहाँ विजयहीरसूरि की योग्यता और कहाँ यह मान का पुतला एवं खुशामदी भक्त जिनचन्द्र । जिनचन्द्र की बातों में महत्व की बात यह थी कि जिनचन्द्र ने बादशाह से अर्ज की कि तपागच्छ वाले हमारी निन्दा करते हैं, अतः आप उनको समझा दें इत्यादि। बस, बादशाह समझ गया कि यह सच्चा फकीर नहीं है। क्योंकि जिसको अभी निन्दा प्रशंसा का ख्याल है वह फकीर हो किस बात का? मुझे यह स्वप्न में भी विश्वास नहीं था कि चींटी जैसे क्षुद्र प्राणियों की रक्षा करने वाले १. हमारे चरित्र नायक श्रीजिनचन्द्रसूरि ने सम्राट के सामने उपस्थित विद्वान् मंडली में
उपरोक्त प्रवचन परीक्षादि ग्रन्थों की निःसारता और असभ्यता को सिद्ध किया। विद्वानों ने भी उसे अप्रमाणित और अमान्य प्रमाणित किया।
यु. प्र. जि., पृष्ठ १२४ नाहटाजी के इन शब्दों से पता मिलता है कि जिनचन्द्रसूरि बादशाह को प्रतिबोध देने को नहीं पर अपने घर का रोना रोने को गया था।