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१२. कई खरतर प्रतिक्रमण में अपने दादाजी के काउस्सग्ग करते हैं। पहले तो वे 'खरतरगच्छ शृङ्गार' कहते थे पर अभी कई लोग 'चौरासीगच्छ शृङ्गार' कहने लग गये हैं। तो क्या जिनदत्तसूरि को ८४ गच्छ वाले अपने अपने गच्छ के शृङ्गार हार मानते हैं ? शृङ्गार हार मानना तो दूर रहा पर उपरोक्त कारणों से ८४ गच्छ वाले जिनदत्तसूरि को उत्सूत्र प्ररुपक मिथ्यात्वी कदाग्रही अनंत संसारी निन्हव और जैन समाज में क्लेश कुसम्प तथा फूट के बीज बोने वाला मानते हैं। यदि कोई व्यक्ति कह दे कि 'मान या न मान मैं तेरा मेहमान' इससे वह मेहमान नहीं कहा जाता है। एक पागल कह दे कि मेरा पिता चौरासी देशों का बादशाह था। तो क्या वह चौरासी देशों का बादशाह बन सकता है? कदापि नहीं । बस यही हाल खरतरों का है। जरा स्वयं सोच सकते हो कि ८४ गच्छ वाले जिनदत्त को शङ्कार हार मानते हैं तो फिर खरतर काउस्सग्ग करे और शेष गच्छ वाले यों ही बैठे रहें। वे साथ में प्रतिक्रमण करते हुये भी काउस्सग्ग क्यों नहीं करते हैं? इतना ही क्यों पर एक स्थान पर तपा-खरतरादि शामिल बैठ कर प्रतिक्रमण करते थे। जब खरतरों ने अपने दादाजी का काउस्सग्ग करते समय 'चौरासीगच्छशृङ्गारहार' शब्दोच्चारण किया तो एक गच्छ वाले ने कहा कि जिनदत्त हमारे गच्छ के शृङ्गार नहीं है। तब दूसरे गच्छ वाले भी बोल उठे कि दादाजी हमारे गच्छ के शृङ्गार नहीं है इत्यादि। बतलाइये इसमें दादाजी और इनके भक्तों की क्या इज्जत रही? पर खरतरों की न तो कभी इज्जत थी और न इस बात का वे विचार ही करते हैं। और ८४ गच्छ तो दर किनार रहे पर खास जिनवल्लभ का साधु एवं जिनदत्त वे गुरुभाई जिनशेखरसूरि और उनकी परम्परा संतान जिनदत्त एवं खरतर का नाम लेने में भी महापाप समझते थे। फिर दूसरे गच्छों की तो बात ही क्या करते हो? इस विषय का तो जिसने अभ्यास किया है वही जानता है कि इस हठकदाग्रही जिनवल्लभ और जिनदत्त ने जैन समाज को कितना नुकसान पहुचाया है? धन्य है ऐसे मत और मत के निकालने वालों को तथा ऐसे उत्सूत्र प्ररुपकों के मत को मानने वालों को !!!
१२. आप इस प्रकार जिनदत्तसूरि के विषय में कहते हो पर जिनदत्तसूरि की ग्राम ग्राम में पादुकायें बनी हुई हैं और सब गच्छ वाले उनको मानते पूजते हैं। यदि वे चमत्कारी नहीं होते तो सब गच्छ वाले उनको क्यों मानते ?
कहा है कि लोभियों के नगर में धूतारे भूखे नहीं रहते हैं। जनता को धन पुत्रादि का लाभ बतला कर धूर्त लोग क्या क्या नहीं कर सकते हैं? आंचलगच्छ