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वे पर गच्छीयों की चढ़ती देख मन में खूब जलते थे। पर जिनके पुण्य ही प्रबल्य होते हैं उनका कोई क्या कर सकता है? दादाजी के समय केवल एक पाटण शहर में १८०० कोटि ध्वज थे। दादाजी उनको श्राप नहीं दे सके फिर बिचारे एक अंबड की ही तकदीर ऐसी क्यों थी कि वह दादाजी के श्राप के कारण निर्धन बन गया? पर इस बात के लिए खरतरों के पास उड़ती गप्प के अलावा प्रमाण क्या है? गणधर सार्द्धशतक ग्रन्थ में दादाजी का जीवन है। उसमें इस बात की गंध तक नहीं है फिर खरतर किस मुंह से जिनदत्तसूरि की हँसी करते हैं? हाँ श्राप देना तो खरतरों के परम्परा से ही चला आया है। अन्यगच्छीयों को श्राप दे इसमें कौन सा आश्चर्य है? पर वे तो अपने गच्छ वालों को भी श्राप देने में नहीं चूकते हैं, जैसे खरतर बेगड़ शाखा वाले को श्राप दे दिया कि तुम्हारी शाखा में १९ साधु से ज्यादा न होगा। सुखसागर को श्राप दिया कि तुम्हारे दो अंक के अर्थात् १० साधु न होगा इत्यादि।
११. कई खरतर पक्षपात में बेभान होकर यह भी कह देते हैं कि जिनदत्तसूरि युगप्रधान थे। जिस समाज में उत्सूत्र भाषण करनेवाले एवं संघ से बहिष्कार किए हुए व्यक्ति भी युगप्रधान कहलाते हो। उन युगप्रधानों की कितनी कीमत हो सकती है? और खरतरमत में युगप्रधान की ऐसी कोई कीमत भी नहीं है क्योंकि बालों में तेल डालनेवाले रेलगाड़ी में सवारी करने वाले नाटक खेल देखने वाले और कनक कामिनी रखने वाले भी युगप्रधान कहला सकता हैं। फिर ऐसे पद से विभूषित करके जिनदत्तसूरि का क्या महत्व बढ़ाना चाहते हैं ? यह समझ में नहीं आता है। पिछले लोगों ने जिनदत्तसूरि को युगप्रधान बनाने के लिये जो कथा मनःकल्पित घड़ निकाली है वह तो उनके मत की एक खास तौर पर प्रवृत्ति चली आई है। खास खरतरों के बनाये हुए गणधरसार्द्धशतक में जिस दिन के चर्म भाग में जिनदत्तसूरि को आचार्य पद दिया है। उसी समय जिनदत्त को युगप्रधान' कहा है। फिर उस कल्पित ढाँचा बनाने का एक गप्प के सिवाय क्या अर्थ हो सकता है?
जैनधर्म के महाप्रभावक युगप्रधानों की नामावली है उस में जिनदत्तसूरि के नाम की गंध तक भी नहीं है। फिर खरतर झूठ मूठ ही उत्सूत्र प्ररुपक जिनदत्त १. श्रीजिनवल्लभसूरिपदे विस्तरेण संध्या समये लानवेलायां । सस्थापिताः श्रीजिनदत्त नामनी युगप्रवराः ॥
____ 'प्र. प. गणधरसार्द्धशतक वृत्ति ।' जब सूरि होते ही जिनदत्त युगप्रधान कहलाया गया था तो फिर अंबड़ की कल्पित कल्पना क्यों की हैं?