________________
१६
१. इसी प्रकार पं. गौरीशंकरजी ओझा ने स्वरचित सिरोही राज के इतिहास में लिखा है कि पाटण में राजा दुर्लभ का राज वि. सं. १०६६॥ से १०७८ तक रहा, बाद राजा भीमदेव पाटण का राजा हुआ।
२. पं. विश्वेश्वरनाथ रेउ ने भारतवर्ष का प्राचीन राजवंश नामक किताब में लिखा है कि पाटण में राजा दुर्लभ का राज १०६६॥ से १०७८ तक रहा ।
३. गुर्जरवन्श भूपावली में लिखा है कि पाटण में राजा दुर्लभ का राज वि. सं. १०७८ तक रहा।
४. आचार्य मेरुतुंग रचित प्रबन्ध चिंतामणि नामक ग्रन्थ में भी लिखा है कि पाटण में राजा दुर्लभ का राज वि. सं. १०६६॥ से १०७८ तक रहा।
इत्यादि इस विषय के अनेक प्रमाण विद्यमान हैं पर ग्रंथ बढ़ जाने के भय से मैंने नमूने के तौर पर उपरोक्त प्रमाण लिख दिए हैं, इन प्रमाणों से स्पष्ट सिद्ध हो गया है कि पाटण में राजा दुर्लभ का राज वि. सं. १०६६॥ से १०७८ तक ही रहा था। तब राजा दुर्लभ की राजसभा में वि. सं. १०८० में जिनेश्वरसूरि का शास्त्रार्थ कैसे हुआ होगा? शायद पाटण का राजा दुर्लभ मरकर भूत हुआ हो और वह दो वर्षों से लौट कर वापिस आकर राजसभा की हो और उसमें जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद दे गया हो तो खरतरों का कहना सत्य (!) हो सकता है पर इसमें भी प्रमाण की आवश्यकता तो रह ही जाती है।
अब जरा जिनेश्वरसूरि की तरफ देखिये कि खुद जिनेश्वरसूरि क्या कहते हैं ? जिनेश्वरसूरि खुद लिखते हैं कि मैं वि. सं. १०८० में जावलीपुर (जालौर) में ठहर कर आचार्य हरिभद्रसूरि के अष्टक ग्रन्थ पर टीका रच रहा था।
श्रीयुत मोहनलाल दलीचन्द देसाई “जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास" नामक पुस्तक के पृष्ठ २०८ पर लिखते हैं कि वि. सं. १०८० में जिनेश्वरसूरि जावलीपुर में रह कर आचार्य हरिभद्रसूरि के अष्टकों पर वृत्ति रची और आपके गुरु भाई आचार्य बुद्धिसागरसूरि ने ७००० श्लोक प्रमाण वाली बुद्धिसागर नामक व्याकरण की रचना की थी।
इस प्रमाण से स्पष्ट पाया जाता है कि वि. सं. १०८० में जिनेश्वरसूरि पाटण में नहीं पर जावलीपुर में विराजते थे। शायद यह कहा जाय कि जावलीपुर से पाटण जाकर शास्त्रार्थ किया हो या पाटण में शास्त्रार्थ करके बाद जावलीपुर आये हो? पर यह दोनों बातें कल्पना मात्र ही हैं क्योंकि वि. सं. १०८० में जिनेश्वरसूरि जावलीपुर में ठहरे उस समय बुद्धिसागरसूरि साथ मे थे और उन्होंने ७००० श्लोक वाली व्याकरण की रचना वहा ही की थी, ये कोई एक दो मास का काम नहीं