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भी कहता हूँ कि ऐसे पुत्र को जन्म देने वाली माताओं ने ब्रह्मचर्यव्रत क्यों नहीं ले लिया था? कोई दवाई लेकर बांझ ही क्यों नहीं रह गई थीं कि शासन को इतना नुकसान तो नहीं होता। खैर भवितव्यता किसी की टाली नहीं टलती है।
जिनदत्त जिनवल्लभ से कम नहीं पर साहसिकता में दो कदम बढ़ के ही था। जिनवल्लभ का काम तो शुरुआत का काम था अतः उनके मत में पहले तो द्विविध संघ ही था। एक जिनवल्लभ साधु संघ । दूसरा उनको मानने वाले चित्तौड़ के चन्द गृहस्थ अर्थात् श्रावक-संघ । कारण, जिन स्त्रियों के पति वल्लभ के अनुयायी बन जाने पर भी वे औरतें अपने पथ से विचलित नहीं हुई थीं तो फिर साध्वी तो उनके उत्सूत्र मत में हो ही कैसे सकती? अतः जिनवल्लभ के दो ही संघ थे। बाद गृहस्थों के घरों में क्लेश कुसम्प डलवा कर बड़ी मुश्किल से वल्लभ ने तीन संघ बनाये। साधु, श्रावक और श्राविका ।
जिनदत्त ने इस नूतन मत की वृद्धि के लिए एक मिथ्यात्वी चामुण्डा देवी को बलि बाकुल देकर उसकी आराधना की। जिसकी आराधना पूर्व जिनवल्लभ ने भी की थी। पर देवी देवता भी तो इतने भोले नहीं होते हैं कि ऐसे शासन भंजकों का साथ दें अर्थात् न सफलता मिली थी जिनवल्लभ को और न मिली जिनदत्त को। फिर भी जिनदत्त भद्रिक लोगों को कहता था कि देवी चामुण्डा मेरे बस हो गई। अतः कई लोग जिनदत्त के मत को चामुण्डिक मत कहने लग गये। महोपाध्याय धर्मसागरजी के मतानुसार इस घटना का समय वि. सं. १२०१ का कहा जाता है। जिनदत्त ने जिनवल्लभ के त्रिविध संघ को बढ़ाकर चतुर्विध संघ बना दिया।
___'पाखण्डे पूज्यते लोकाः' । संसार में तत्त्वज्ञान को जानने वाले लोग बहुत थोड़े होते हैं। जिनदत्तसूरि के जीवन से यह भी पता मिलता है कि वह किसी को मंत्र किसी को तन्त्र और किसी को रोग निवारणार्थ औषधियां वगैरह बतलाया करता था। अतः जिनवल्लभ की बजाय जिनदत्त के भक्तों की संख्या बढ़ गई हो तो यह असम्भव भी नहीं है क्योंकि जनता हमेशा भौतिक सुखों को चाहने वाली होती है।
वि. सं. १२०४ में जिनदत्तसूरि पाटण जाता है और एक दिन वह मन्दिर में गया। वहां पर कुछ रक्त के छींटे देखे । इस निमित्त कारण से उसके मिथ्यात्व
१. देखो-खरतरों की महाजन वंश मुक्तावली, जिसके प्रमाण आगे के पृष्ठ में दिये
जायेंगे।