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अवश्य थी।
भाग्यवशात् जैसे को तैसा मिल ही जाता है। देवभद्र को सोमचन्द्र साधु मिल गया। जिसका जिनवल्लभ के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं था पर उनका सम्बन्ध था पदवी के साथ । बस, देवभद्र और सोमचन्द्र की आपस में वचन बन्दी हो गई अर्थात् जिनवल्लभ की सब बातें सोमचन्द्र को माननी ही नहीं पर उसका प्रचार करना होगा इत्यादि । सोमचन्द्र ने सब मंजूर कर ली क्योंकि उनको तो पदवी लेकर सूरि बनना था। बस फिर तो था ही क्या? उसको चित्तौड़ ले जाकर वि. सं. ११६९ में जिनवल्लभ के पट्ट पर आचार्य बना कर उसका नाम जिनदत्तसूरि रख दिया। उस समय चित्तौड़ के अलावा जिनवल्लभ का कोई क्षेत्र ही नहीं था।
जिनदत्तसूरि के मन के मनोरथ सफल हो गये फिर भी आप इतने ही से संतुष्ट नहीं हुये। आपने अपने नाम को चिरस्थायी बनाने के लिये खुद के हाथों से खुद की मूर्तियें एवं पादुकायें स्थापन कराने की एक नई प्रथा चला दी। ठीक है पक्षपात के साम्राज्य में जितना न करे उतना ही थोड़ा है।
विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में आंचलगच्छीय धर्मघोषसूरि हुए उनके बनाये शतपदी नामक ग्रन्थ में यह भी उल्लेख मिलता है कि जिनदत्तसूरि अपने उपाश्रय में एक ऐसी पेटी रखवाता था कि अपने भक्त लोगों को उपदेश देकर उस पेटी में कुछ द्रव्य डलवाता था और उस द्रव्य से अपनी मूर्तियें या चरण पादुकायें स्थापन करवाता था। इनके पूर्व इस प्रकार अपनी पादुकायें अपने हाथों से किसीने भी नहीं स्थापित कराई थीं। इससे उपरोक्त बात और भी परिपुष्ट हो जाती है कि जिनदत्तसूरि महत्वाकांक्षी था और वह आप अपने पुजाने का भरचक प्रयत्न भी करता था।
उसी शतपदी नामक ग्रन्थ में एक यह भी बात लिखी है कि जिनदत्तसूरि ने चक्रेश्वरी देवी की स्तुति बनाई, जिसमें लिखा है कि हे माता ! विधिमार्ग के दुश्मनों का सिर काट कर विघ्न को दूर करो। इससे पाया जाता है कि उस समय जिनदत्त को खरतर शब्द प्रिय नहीं पर अरुचिकर था। इस लिये ही उसने विधिमार्ग की रक्षा के लिये देवी से प्रार्थना की थी, यही कारण है कि अन्य गच्छ वाले विधिमार्ग को उत्सूत्र मार्ग समझ कर जहां तहां तिरस्कार करते होंगे। तब ही तो जिनदत्तसूरि की भावना उन सबके सिर कटवाने की हुई होगी और अपनी कुछ भी न चली तब चक्रेश्वरी देवी की प्रार्थना की होगी।
यह तो आपकी योग्यता का दो शब्दों में संक्षिप्त परिचय करवाया है। अब आगे चल कर पढ़िये कि जिनदत्त ने क्या क्या अनर्थ किये हैं ? मैं तो यहां तक