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इस विषय में यहां अधिक लिखना यों ठीक नहीं समझा है कि इस विषय के बहुत से प्रमाण खरतरगच्छोत्पत्ति भाग पहला, दूसरा नामक किताबों में मुद्रित करवा दिये हैं, वह भी खास तौर पर खरतरों के लिखे हुए पट्टावल्यादि ग्रंथों के प्रमाण हैं, उनसे यह साबित कर दिया है कि सं. १०८० में न तो जिनेश्वरसूरि पाटण गये थे क्योंकि सं. १०८० में वे जावलीपुर में ठहर कर श्रीमान् हरिभद्रसूरि के अष्टक ग्रंथ पर टीका रच रहे थे, ऐसा खुद जिनेश्वरसूरि ने लिखा है और न राजसभा में शास्त्रार्थ ही हुआ और न राजा ने खरतर बिरुद ही दिया था। खरतरों ने खरतर और कंवला नाम पर से यह कल्पना कर डाली है। "लो यह हुई जिनेश्वरसूरि की बातें अब आगे कुछ बातें कहो"
अभयदेवसूरि की बातें। श्रीअभयदेवसूरि नाम के अनेक आचार्य हो गये हैं। पर यहां तो नौ अंग वृत्तिकार अभयदेवसूरि की ही बात है। वे अभयदेवसूरि आचार्य महाप्रभाविक हुए हैं और प्रभावकचरित्र में अन्यान्य प्रभाविक आचार्यों के साथ अभयदेवसूरि को भी प्रभाविकाचार्य समझ कर इनका चरित्र भी प्रभाविकचरित्र में लिखा गया है। पर यह एक दुःख की बात है कि कई खरतर लोग इन महाप्रभाविक आचार्य अभयदेवसूरि को झूठ मूठ ही खरतर बनाने का मिथ्या प्रयत्न कर रहे हैं। फिर भी वे किसी प्रमाण से खरतर बन नहीं सकते हैं। कारण :
१. अभयदेवसूरि ने नौ अंग की टीका के अलावा भी कई ग्रन्थों का निर्माण किया उनमें किसी भी स्थान पर यह नहीं लिखा कि जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद मिला या हम खरतर हैं। यदि शास्त्रार्थ की विजय में खरतर बिरुद मिलता तो अभयदेवसूरि उस खरतर बिरुद को छिपा कर कभी नहीं रखते । परन्तु उन महापुरुष ने अपने को ही क्यों पर उद्योतनसूरि, वर्धमानसूरि और जिनेश्वरसूरि को भी चन्द्रकुल के लिखे हैं। अतः अभयदेवसूरि खरतर नहीं थे पर चन्द्रकुल के थे।
२. अभयदेवसूरि ने हरिभद्रसूरि के पंचासक ग्रन्थ पर टीका रची है, जिसमें भगवान महावीर के ५ कल्याणक स्पष्टतया लिखे हैं तब खरतर छ: कल्याणक मानते हैं। अतः अभयदेवसूरि खरतर नहीं थे।
३. अभयदेवसूरि ने जैसे पुरुषों को जिनपूजा करना कल्याण का कारण माना है वैसे ही स्त्रियों को जिनपूजा करना कल्याण का कारण बतलाया है। तब खरतर स्त्रियों को जिनपूजा करना निषेध करते हैं। अतः अभयदेवसूरि खरतर नहीं थे।
४. अभयदेवसूरि के पट्टधर वर्धमानसूरि हुए उन्होंने ऋषभ चरित्र में स्पष्ट १. देखो खरतर गच्छोत्पत्ति भाग पहला।
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