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जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में राजा दुर्लभ ने खरतर बिरुद दिया होता तो करीब ३०० वर्षों तक यह महत्त्वपूर्ण बिरुद गुप्त नहीं रहता। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में खरतर गच्छाचार्यों की यह मान्यता थी कि खरतर गच्छ के आदि पुरुष जिनदत्तसूरि ही थे। और यही उन्होंने शिलालेखों में लिखा है। यहाँ एक शिलालेख इस बारे में नीचे उद्धत करते हैं।
"संवत् १५३६ वर्षे फागुणसुदि ५ भौमवासरे श्री उपकेशवंशे छाजहड़गोत्रे मंत्रिफलधराऽन्वये मं. जूठल पुत्र मकालु भा. कांदे पु. नयणा भा. नामल दे तयो पुत्र मं. सीहा भार्यया चोपड़ा सा. सवा पुत्र स. जिनदत्त भा. लखाई पुत्र्या श्राविका अपुरव नाम्न्या पुत्र समधर समरा संदू संही तया स्वपुण्यार्थं श्रीआदिदेव-प्रथम-पुत्ररत्न-प्रथम-चक्रवर्ति-श्रीभरतेश्वरस्यकायोत्सर्गस्थितस्य प्रतिमा कारिता प्रतिष्ठिता खरतरगच्छमण्डनश्रीजिनदत्तसूरि श्रीजिनकुशलसूरिसंतानीय श्रीजिनचन्द्रसूरि पं. जिनेश्वरसूरिशाखायां श्रीजिनशेखरसूरिपट्टे श्रीजिनधर्मसूरिपट्टाऽलंकारश्रीपूज्यश्रीजिनचन्द्रसूरिभिः" ।
इस लेख से पाया जाता है कि सोलहवीं शताब्दी में खरतर गच्छ के आदि पुरुष जिनेश्वरसूरि नहीं पर जिनदत्तसूरि ही माने जाते थे। खरतरों के पास इससे प्राचीन कोई भी प्रमाण नहीं है कि वह जनता के सामने पेश कर सके। अधुना खरतर गच्छ अनुयायी प्रतिक्रमण के अन्त में दादाजी के काउस्सग्ग करते हैं। उसमें भी जिनेश्वरसूरि का नहीं पर जिनदत्तसूरि का ही करते हैं और कहते हैं कि खरतरगच्छ शृंगारहार जिनदत्तसूरि आराधनार्थं... इससे भी स्पष्ट होता है कि खरतर गच्छ के आदि पुरुष जिनदत्तसूरि ही हैं।
खरतर गच्छ को प्राचीन साबित करने वाला एक प्रमाण उनको ऐसा उपलब्ध हुआ है कि जिस पर वे लोग विश्वास कर कहते हैं कि बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहर के संग्रह किये हुए शिलालेख खण्ड तीसरे में जिसमें वि. सं. ११४७ का एक शिलालेख विद्यमान है। नमूना नीचे उद्धृत है।
"संवत् ११४७ वर्षे श्रीऋषभबिंबं श्रीखरतरगच्छे श्री जिनशेखरसूरिभिः करापितं ॥"
इस शिलालेख को पढ़कर सभ्य संसार में यह शंका स्वयं समुत्थित हो सकती है कि जिनेश्वरसूरि से लेके ३०० वर्षों तक के ग्रन्थ व शिलालेखों में तो कहीं पर भी खरतर गच्छ ऐसा शब्द नहीं आया और केवल एकमात्र पंक्ति में वि. सं. ११४७ के शिलालेख में सहसा यह खरतर गच्छ का शब्द कहाँ से आ धमका?