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श्रीजिनप्रबोधसूरिशिष्य श्रीजिनचंद्रसूरिभिः श्रीजिनप्रबोधसूरिमूर्ति प्रतिष्ठा कारिता रामसिंहसुताभ्यां सा. नोहा कर्मण श्रावकाभ्यां स्वमातृ राई मई श्रेयोऽर्थं ॥"
आ. बु. धा. ले. सं., लेखांक ७३४ ये आचार्य जिनदत्तसूरि के पांचवे पट्टधर थे । इनके समय तक भी खरतर शब्द को गच्छ का स्थान नहीं मिला था ।
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'ॐ संवत् १३७९ मार्ग. वदि ५ प्रभु जिनचंद्रसूरिशिष्यैः श्रीकुशलसूरिभि श्री शान्तिनाथबिंबं प्रतिष्ठितं कारितञ्च सा. सहजपालपुत्रैः सा. धाधल गयधर थिरचंद्र सुश्रावकैः स्वपितृ पुण्यार्थं ॥"
बाबू पूर्ण., खंड तीसरा, लेखांक २३८९ ॐ सं. १३८१ वैशाख वदि ५ श्रीपत्तने श्रीशांतिनाथविधिचैत्ये श्री जिनचंद्रसूरिशिष्यैः श्री जिनकुशलसूरिभिः श्रीजिनप्रबोधसूरिमूर्ति प्रतिष्ठा कारिता च सा. कुमारपाल रत्नैः सा. महणसिंह सा. देवाल सा. जगसिंह सा. मेहा सुश्रावकैः सपरिवारैः स्वश्रेयोऽर्थम् ॥
बाबू पूर्ण., खण्ड दूसरा, लेखांक १९८८ “संवत् १३९१ मा. सु. १५ खरतरगच्छीय श्रीजिनकुशलसूरिशिष्यैः जिनपद्मसूरिभि: श्री पार्श्वनाथप्रतिमाप्रतिष्ठिता कारिता च भव. बाहिसुतेन रत्नसिंहेन पुत्र आल्हानादि परिवृतेन स्वपितृ - सर्व-पितृव्य पुण्यार्थं ॥”
“सं. १३९९ भ. श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनकुशलसूरिभि: श्रीपार्श्वनाथबिंबं प्रतिष्ठितं कारितं च सा. केशवपुत्ररत्न सा. जेहदु सुश्रावकेन पुण्यार्थं ।"
बाबू पूर्ण., खं. दूसरा
यह आचार्य जिनदत्तसूरि के छठे पट्टधर हुए हैं I
पूर्वोक्त शिलालेखों से पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि जिनकुशलसूरि के पूर्व किन्हीं आचार्यों के नाम के साथ खरतर शब्द का प्रयोग नहीं हुआ पर जिनकुशलसूरि के कई शिलालेखों में खरतर शब्द नहीं है और कई लेखों में खरतरगच्छ का प्रयोग हुआ है, इससे यह स्पष्ट पाया जाता है कि खरतर शब्द गच्छ के रुप में जिनकुशलसूरि के समय अर्थात् विक्रम की चौदहवीं शताब्दी ही में परिणत हुआ है। इसका अभिप्राय यह है कि खरतर शब्द न तो राजाओं का दिया हुआ बिरुद है और न कोई गच्छ का नाम है । यदि वि. सं. १०८० में