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को प्रारंभ में जिस अपमान से जितना दुःख होता है वह कालान्तर में पिछले मनुष्यों को नहीं होता, क्योंकि उनके संस्कार ही बदल जाते हैं, यही हाल यदि खरतर शब्द का हुआ हो तो आश्चर्य नहीं इत्यादि।
उपरोक्त इन तीन प्रकार की मान्यताओं में कौन सी मान्यता सत्य और प्रामाणिक हैं ? यह हम निम्नांकित प्रमाणों द्वारा निर्णय कर पाठकों की सेवा में रख देना चाहते हैं। निर्णय के पूर्व इस स्थान पर यह कहना भी अप्रासङ्गिक नहीं होगा कि जिनकी परम्परा भगवान् महावीर से जाकर मिलती है उन्हें यदि शासन का एक अङ्ग कहे तो कोई अनुचित नहीं । यदि कोई प्रश्न करे कि जिसको शासन का एक अंग माना जाय फिर किसी को कोई विशेषण सौ दो सौ वर्ष पहले मिला हो या सौ दो सौ वर्ष बाद मिला हो, इसका विवाद करने में क्या हानि लाभ है कि जिसकी समालोचना की जाय?
प्रकृति का नियम है कि जब तक कोई काल्पनिक वस्तु अपने कल्पित रुप में ही रहे तब तक तो उस पर समालोचना की आवश्यकता नहीं रहती है, परंतु जब उस कल्पित वस्तु पर भी सत्यता का सिक्का लगाने का दावा किया जाता हो, अर्थात् सत्यता का खून कर इतिहास पर परदा डाला जाता हो, तब समालोचना की परम आवश्यकता होती है यह न्याय संयुक्त है।
(१) जिन लोगों का मत है कि वि. सं. १०८० में पाटण के राजा दुर्लभ की राजसभा में चैत्यवासियों के साथ जिनेश्वरसूरि का शास्त्रार्थ हुआ और जिनेश्वरसूरि को विजय के उपलक्ष्य में राजा दुर्लभ ने "खरतर-बिरुद" दिया इत्यादि, किंतु यह बात ऐतिहासिक प्रमाणों से बिलकुल असत्य एवं निराधार ठहरती है, कारण किन्ही भी प्राचीन ग्रंथ व शिलालेखों में इसका जिक्र तक नहीं है और न इसकी सबूती के लिए खुद खरतरों की ओर से आज पर्यन्त कोई प्रमाण दिया गया है, जिस पर कि सभ्य समाज विश्वास कर सके। केवल कागजी घुड़-दौड़ से सफलता मिलने का यह समय नहीं है। प्रथम तो यह बात सर्व विदित एवं इतिहास-प्रसिद्ध है कि वि. सं. १०८० में दुर्लभ राजा का पाटण में राज्य ही नहीं था, इतना ही नहीं पर विश्व के रङ्ग-मञ्च पर उस समय राजा दुर्लभ का अस्तित्व भी असंगत था, इस दशा में वि. सं. १०८० में दुर्लभ राजा ने "खरतर" बिरुद कैसे दिया? वि. सं. १०८० में पाटण में भीमराज का राज्य था, इस विषय में इतिहासज्ञों के अग्रणी पंडित गौरीशंकर हीराचन्दजी ओझा ने सिरोही राज्य के इतिहास में पाटण के राजाओं की निम्नलिखित वंशावली दी है। पाटण की स्थापना वि. सं. ८०२ में हुई थी। वंशावली यह है :