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८. जिनप्रतिमा की पूजा १. जैसा पुरुषों को प्रभुपूजा कर आत्मकल्याण करने का अधिकार है वैसा ही स्त्रियों को भी जिनपूजा कर आत्मकल्याण करने का अधिकार है। और जैनागमों में प्रभावती, चैलना, मृगावती, जयन्ति, सुलसा, सेवानन्दा, देवानन्दा और द्रौपदी वगैरह महिलाओं ने परमेश्वर की द्रव्यभाव से पूजा की भी है पर प्रबल मोहनीयकर्म के उदय से वि. सं. १२०४ में जिनदत्तसूरि ने पाटण के जिनमंदिर में रक्त के छींटे देख स्त्रीजाति के लिये जिनपूजा करना निषेध कर दिया। आज करीब सात आठ सौ वर्ष हुए बिचारी खरतरियां जिन-पूजा से वंचित रहती हैं। इस धर्मान्तराय का मूल कारण जिनदत्तसूरि ही हैं।
फिर भी पुरुषों की तकदीर ही अच्छी थी कि जिनदत्तसूरि ने किसी पुरुष को आशातना करते नहीं देखा वरना वे तो पुरुषों को भी जिनपूजा करने का निषेध कर देते जैसे स्त्रियों को किया था। अर्थात् शासन के एक अंग के बजाय दोनों अंग काट डालते।
९. तिथि क्षय एवं वृद्धि १. तिथि का क्षय हो तो क्षय के पूर्व की तिथि का क्षय मानना चाहिये, जैसे अष्टमी का क्षय हो तो उसके पूर्व की तिथि सातम का क्षय समझ कर सातम को अष्टमी मान कर पर्वाराधन करना चाहिये तथा पूर्णिमा का क्षय हो तो तेरस का क्षय करके दूसरे दिन चौदस और तीसरे दिन पूर्णिमा का पर्वआराधन करना चाहिये।
यदि तिथि की वृद्धि हो तो पूर्व की तिथि को वृद्धि करके दूसरी तिथि को पर्वतिथि मानना चाहिये, जैसे अष्टमी दो हों तो पहली अष्टमी को दूसरी सातम समझना और पूर्णिमा दो हों तो तेरस दो समझना ऐसा शास्त्रकारों का स्पष्ट मत है, पर खरतरों का तो मत ही उलटा है कि वे अष्टमी का क्षय होने से अष्टमी का पर्व नौमी को करते हैं कि जिसमें अष्टमी का अंश मात्र भी नहीं रहता है तथा १. 'यथा क्षये पूर्वा तिथि कार्या वृद्धौ कार्यां तथोत्तराः ।
(उमास्वाति वाचक) 'अह जह कहवि न लभई । तताउ सूरूगामेण जुत्ताउ। ता अवरविद्ध अवरावि । हुज्ज नहु पुव्व तव्विद्धा' ॥ एवं हीणचऊदसी । तेरसिजुत्ता न दोसमावहई। सरणंगउवि राया। लोआणं होइ जह पुज्जो ॥