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________________ आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-७-वाक्यशुद्धि सूत्र - २९४ प्रज्ञावान् साधु चारों ही भाषाओं को जान कर दो उत्तम भाषाओं का शुद्ध प्रयोग करना सीखे और दो (अधम) भाषाओं को सर्वथा न बोले । सूत्र - २९५-२९८ तथा जो भाषा सत्य है, किन्तु अवक्तव्य है, जो सत्या-मृषा है, तथा मृषा है एवं जो असत्यामृषा है, (किन्तु) तीर्थंकर देवों के द्वारा अनाचीर्ण है, उसे भी प्रज्ञावान् साधु न बोले । जो असत्याऽमृषा और सत्यभाषा अनवद्य, अकर्कश और असंदिग्ध हो, उसे सम्यक् प्रकार से विचार कर बोले । सत्यामृषा भी न बोले, जिसका यह अर्थ है, या दूसरा है ? (इस प्रकार से) अपने आशय को संदिग्ध बना देती हो । जो मनुष्य सत्य दीखनेवाली असत्य वस्तु का आश्रय लेकर बोलता है, उससे भी वह पाप से स्पृष्ट होता है, तो फिर जो मृषा बोलता है, उसके पाप का तो क्या कहना ? सूत्र - २९९-३०३ हम जाएंगे, हम कह देंगे, हमारा अमुक (कार्य) अवश्य हो जाएगा, या मैं अमुक कार्य करूंगा, अथवा यह (व्यक्ति) यह (कार्य) अवश्य करेगा; यह और इसी प्रकार की दूसरी भाषाएँ, जो भविष्य, वर्तमान अथवा अतीतकाल-सम्बन्धी अर्थ के सम्बन्ध में शंकित हों; धैर्यवान् साधु न बोले । __अतीत, वर्तमान और अनागत काल सम्बन्धी जिस अर्थ को न जानता हो अथवा जिसके विषय में शंका हो उसके विषय में 'यह इसी प्रकार है, ऐसा नहीं बोलना । अतीत, वर्तमान और अनागत काल सम्बन्धी जो अर्थ निःशंकित हो, उसके विषय में 'यह इस प्रकार है', ऐसा निर्देश करे। सूत्र - ३०४-३०६ इसी प्रकार जो भाषा कठोर हो तथा बहुत प्राणियों का उपघात करने वाली हो, वह सत्य होने पर भी बोलने योग्य नहीं है; क्योंकि ऐसी भाषा से पापकर्म का बन्ध (या आस्रव) होता है । इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक को नपुंसक तथा रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे । इस उक्त अर्थ से अथवा अन्य ऐसे जिस अर्थ से कोई प्राणी पीड़ित होता है, उस अर्थ को आचार सम्बन्धी भावदोष को जाननेवाला प्रज्ञावान् साधु न बोले । सूत्र - ३०७-३१३ इसी प्रकार प्रज्ञावान् साधु, 'रे होल !, रे गोल !, ओ कुत्ते !, ऐ वृषल (शूद्र)!, हे द्रमक !, ओ दुर्भग !' इस प्रकार न बोले । स्त्री को-हे दादी !, हे परदादी !, हे मां !, हे मौसी !, हे बुआ !, ऐ भानजी !, अरी पुत्री !, हे नातिन, हे हला !, हे अन्ने!, हे भट्टे !, हे स्वामिनि !, हे गोमिनि ! - इस प्रकार आमंत्रित न करे । किन्तु यथायोग्य गुणदोष, वय आदि का विचार कर एक बार या बार-बार उन्हें उनके नाम या गोत्र से आमन्त्रित करे। पुरुष को-हे दादा !, हे परदादा !, हे पिता !, हे चाचा !, हे मामा!, हे भानजा !, हे पुत्र !, हे पोते !, हे हल !, हे अन्न !, हे भट्ट !, हे स्वामिन् !, हे वृषल!' इस प्रकार आमन्त्रित न करे । किन्तु यथायोग्य गुणदोष, वय आदि का विचार कर एक बार या बार-बार उन्हें उनके नाम या गोत्र से आमन्त्रित करे। सूत्र - ३१४-३१६ पंचेन्द्रिय प्राणियों को जब तक 'यह मादा अथवा नर है' यह निश्चयपूर्वक न जान ले, तब तक यह मनुष्य की जाति है, यह गाय की जाति है, इस प्रकार बोले । इसी प्रकार मनुष्य, पशु-पक्षी अथवा सर्प (सरीसृप) को देख कर के स्थूल है, प्रमेदुर है, वध्य है, या पाक्य है, इस प्रकार न कहे । प्रयोजनवश बोलना ही पड़े तो उसे परिवृद्ध, मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवैकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 27
SR No.034711
Book TitleAgam 42 Dashvaikalik Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 42, & agam_dashvaikalik
File Size2 MB
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