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अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक
आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक'
अध्ययन-५-पिण्डैषणा अध्ययन-५-पिण्डैषणा उद्देशक-१
सूत्र - ७६
भिक्षाकाल प्राप्त होने पर असम्भ्रान्त और अमूर्छित होकर इस क्रम-योग से भक्त-पान की गवेषणा करे । सूत्र - ७७
ग्राम या नगर में गोचराग्र के लिए प्रस्थित मुनि अनुद्विग्न और अव्याक्षिप्त चित्त से धीमे-धीमे चले । सूत्र -७८
आगे युगप्रमाण पृथ्वी को देखता हुआ तथा बीज, हरियाली, प्राणी, सचित्त जल और सचित्त मिट्टी को टालता हुआ चले। सूत्र - ७९
अन्य मार्ग के होने पर गड्ढे आदि, ऊबडखाबड़ भूभाग, ठूठ और पंकिल मार्ग को छोड़ दे; तथा संक्रम के ऊपर से न जाए। सूत्र -८०
उन गड्ढे आदि से गिरता हुआ या फिसलता हुआ त्रस या स्थावर जीवों की हिंसा कर सकता है। सूत्र - ८१
इसलिए सुसमाहित संयमी साधु अन्य मार्ग के होते हुए उस मार्ग से न जाए । यदि दूसरा मार्ग न हो तो यतनापूर्वक उस मार्ग से जाए। सूत्र -८२
संयमी साधु अंगार, राख, भूसे और गोबर पर सचित रज से युक्त पैरों से उन्हें अतिक्रम कर न जाए। सूत्र - ८३
वर्षा बरस रही हो, कुहरा पड़ रहा हो, महावात चल रहा हो, और मार्ग में तिर्यञ्च संपातिम जीव उड़ रहे हों तो भिक्षाचरी के लिए न जाए। सूत्र - ८४
ब्रह्मचर्य का वशवर्ती श्रमण वेश्यावाड़े के निकट न जाए; क्योंकि दमितेन्द्रिय और ब्रह्मचारी साधक के चित्त में भी असमाधि उत्पन्न हो सकती है। सूत्र - ८५
ऐसे कुस्थान में बार-बार जाने वाले मुनि को उन वातावरण के संसर्ग से व्रतों की क्षति और साधुता में सन्देह हो सकता है। सूत्र - ८६
इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर एकान्त के आश्रव में रहने वाला मुनि वेश्यावाड़ के पास न जाए। सूत्र - ८७
मार्ग में कुत्ता, नवप्रसूता गाय, उन्मत्त बल, अश्व और गज तथा बालकों का क्रीड़ास्थान, कलह और युद्ध के स्थान को दूर से ही छोड़ कर गमन करे।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवैकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
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