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________________ आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति' यह धर्म उत्तम है । इससे जीव मिथ्यात्व में स्थिर हो, या श्रद्धावाला हो तो मिथ्यात्व पाए । आदि कईं दोष हैं । और फिर यदि वो बौद्ध आदि का भक्त हो तो साधुको आधाकर्मादि अच्छा आहार बनाकर दे । इस प्रकार साधु रोज वहाँ जाने से बौद्ध की प्रशंसा करने से वो साधु भी शायद बौद्ध हो जाए । झूठी प्रशंसा आदि करने से मृषावाद भी लगे। __ यदि वो ब्राह्मण आदि साधु के द्वेषी हो बोले कि, इसको पीछले भव में कुछ नहीं दिया इसलिए इस भव में नहीं मिलता, इसलिए ऐसा मीठा बोलता है, कुत्ते की प्रकार दीनता दिखाता है, आदि बोले । इससे प्रवचन विराधना होती है, घर से निकाल दे या फिर से घर में न आए इसलिए झहर आदि दे । इससे साधु की मौत आदि हो । इसलिए आत्मविराधना आदि दोष रहे हैं। सूत्र - ४९४-४९८ किसी के घर साधु भिक्षा के लिए गए, वहाँ गृहस्थ बीमारी के इलाज के लिए दवाई के लिए पूछे, तो साधु ऐसा कहे कि, क्यों मैं वैद्य हूँ ? इसलिए वो गृहस्थ समझे कि, यह बीमारी के इलाज के लिए वैद्य के पास जाने के लिए कहत हैं । या फिर कहे कि, मुझे ऐसी बीमारी हुई थी और तब ऐसा इलाज किया था और अच्छा हो गया था । या फिर साधु खुद ही बीमारी का इलाज करे । इन तीन प्रकार से चिकित्सा दोष लगता है। इस प्रकार आहारादि के लिए चिकित्सा करने से कई प्रकार के दोष लगते हैं । जैसे कि - औषध में कंदमूल आदि हो, उसमें जीव विराधना हो । ऊबाल क्वाथ आदि करने से असंयम हो । गृहस्थ अच्छा होने के बाद तपे हुए लोहे की प्रकार जो किसी पाप व्यापार जीव वध करे उसका साधु निमित्त बने, अच्छा हो जाने पर साधु को अच्छा-अच्छा आहार बनाकर दे उसमें आधाकर्मादि कईं दोष लगे । और फिर उस मरीज को बीमारी बढ़ जाए या मर जाए तो उसके रिश्तेदार आदि साधु को पकड़कर राजसभा में ले जाए, वहाँ कहे कि, इस वेशधारी ने इसे मार डाला । न्याय करनेवाले साधु को अपराधी ठहराकर मृत्युदंड दे, उसमें आत्म विराधना । लोग बोलने लगे कि, इस साधुने अच्छा आहार मिले इसलिए यह इलाज किया है । इससे प्रवचन विराधना । इस प्रकार इलाज करने से जीव विराधना यानि संयम विराधना, आत्म विराधना और प्रवचन विराधना ऐसे तीन प्रकार की विराधना होती है। सूत्र - ४९९-५०२ विद्या-ओमकारादि अक्षर समूह-एवं मंत्र योगादि का प्रभाव, तप, चार-पाँच उपवास, मासक्षमण आदि का प्रभाव, राजा-राजा, प्रधान आदि अधिकारी का माननीय राजादि वल्लभ, बल-सहस्र योद्धादि जितना साधु का पराक्रम देखकर या दूसरों से मालूमात करके, गृहस्थ सोचे कि, यदि यह साधु को नहीं देंगे तो शाप देंगे, तो घर में किसी को मौत होगी । या विद्या-मंत्र का प्रयोग करेंगे, राजा का वल्लभ होने से हमे नगर के बाहर नीकलवा देंगे, पराक्रमी होने से मारपीट करेंगे । आदि अनर्थ के भय से साधु को आहारादि दे तो उसे क्रोधपिंड़ कहते हैं । क्रोध से जो आहार ग्रहण किया जाए उसे क्रोधपिंड़ दोष लगता है। सूत्र- ५०३-५११ अपना लब्धिपन या दूसरों से अपनी प्रशंसा सुनकर गर्वित बना हुआ, तूं ही यह काम करने के लिए समर्थ है, ऐसा दूसरे साधु के कहने से उत्साही बने या 'तुमसे कोई काम सिद्ध नहीं होता ।' ऐसा दूसरों के कहने से अपमानीत साधु, अहंकार के वश होकर पिंड़ की गवेषणा करे यानि गृहस्थ को कहे कि, 'दूसरों से प्रार्थना किया गया जो पुरुष सामनेवाले के ईच्छित को पूर्ण करने के लिए खुद समर्थ होने के बावजूद भी नहीं देता, वो नालायक पुरुष है । आदि वचन द्वारा गृहस्थ को उत्तेजित करके उनके पास से अशन आदि पाए तो उसे मानपिंड़ कहते हैं। गिरिपुष्पित नाम के नगर में विजयसिंहसूरिजी परिवार के साथ पधारे थे । एक दिन कुछ तरूण साधु इकट्ठे हुए और आपस में बातें करने लगे । वहाँ एक साधु ने कहा कि, 'बोलो हममें से कौन सुबह में पकाई हुई सेव लाकर दे ? वहाँ गुणचंद्र नाम के एक छोटे साधु ने कहा कि, 'मैं लाकर दूंगा।' तब दूसरे साधु ने कहा कि, यदि घी गुड़ के साथ हम सबको सेव पूरी न मिले तो क्या काम ? थोड़ी-सी लेकर आए उसमें क्या ? इसलिए सबको मिल मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 37
SR No.034710
Book TitleAgam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 41 2, & agam_pindniryukti
File Size2 MB
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