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________________ आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति' घोड़ी का पेट चिर डाला और देखा तो मुनि के कहने के अनुसार पाँच लक्षणवाला घोड़ा था, यह देखते ही उसका गुस्सा शान्त हो गया । इस प्रकार निमित्त कहने में कईं दोष रहे हैं । इसलिए निमित्त कहकर पिंड़ लेना न कल्पे । सूत्र-४७४-४८० आजीविका पाँच प्रकार से होती है । जाति-सम्बन्धी, कुल सम्बन्धी, गण सम्बन्धी, कर्म सम्बन्धी, शील्प सम्बन्धी । इन पाँच प्रकारों में साधु इस प्रकार बोले कि जिससे गहस्थ समझे कि, यह हमारी जाति का है, या तो साफ बताए कि मैं ब्राह्मण आदि हूँ । इस प्रकार खुद को ऐसा बताने के लिए भिक्षा लेना, वो आजीविका दोषवाली मानी जाती है । जाति-ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि या मातृपक्ष की माँ के रिश्तेदार जाति कहलाते हैं । कुल - उग्रकुल, राजन्यकुल, भोगकुल आदि या पितापक्ष का - पिता के रिश्तेदार सम्बन्धी कुल कहलाता है । गण - मल्ल आदि का समूह । कर्म - खेती आदि का कार्य या अप्रीति का उद्भव करनेवाला । शिल्प - तुणना, सीना, बेलना आदि या प्रीति को उद्भव करनेवाला । कोई ऐसा कहता है कि, गुरु के बिना उपदेश किया-शीखा हो वो कर्म और गुरु ने उपदेश करके - कहा-बताया-शीखाया वो शील्प । किसी साधु ने भिक्षा के लिए किसी ब्राह्मण के घर में प्रवेश किया, तब ब्राह्मण के पुत्र को होम आदि क्रिया अच्छी प्रकार से करते हुए देखकर अपनी जाति दिखाने के लिए ब्राह्मणने कहा कि, तुम्हारा बेटा होम आदि क्रिया अच्छी प्रकार से करता है । या फिर ऐसा कहे कि, गुरुकुल में अच्छी प्रकार से रहा हो ऐसा लगता है । यह सुनकर ब्राह्मणने कहा कि, तुम होम आदि क्रिया अच्छी प्रकार से जानते हो इसलिए यकीनन तुम ब्राह्मण जाति के लगते हो । यदि ब्राह्मण नहीं होते तो यह सब अच्छी प्रकार से कैसे पता चलता ? साधु चूप रहे । इस प्रकार साधुने कहकर अपनी जाति बताई वो बोलने की कला से दिखाई । या फिर साधु साफ कहते हैं, मैं ब्राह्मण हूँ । यदि वो ब्राह्मण भद्रिक होता तो यह हमारी जातिक है ऐसा समझकर अच्छा और ज्यादा आहार दे । यदि वो ब्राह्मण द्वेषी हो तो यह पापात्मा भ्रष्ट हुआ, उसने ब्राह्मणपन का त्याग किया है। ऐसा सोचकर अपने घर से नीकाल दे। इस प्रकार कुल, गण, कर्म, शील्प में दोष समझ लेना । इस प्रकार भिक्षा लेना वो आजीविकापिंड दोषवाली मानी जाती है। साध को ऐसा पिंड लेना न कल्पे । सूत्र - ४८१-४९३ आहारादि के लिए साधु, श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि, श्वान आदि के भक्त के आगे - यानि जो जिसका भक्त हो उसके आगे उसकी प्रशंसा करके खुद आहारादि पाए तो उसे वनीपक पिंड़ कहते हैं । श्रमण के पाँच भेद हैं । निर्ग्रन्थ, बौद्ध, तापस, परिव्राजक और गौशाला के मत का अनुसरण करनेवाला । कृपण से दरिद्र, अंध, ढूंठे, लगड़े, बीमार, जुंगित आदि समझना । श्वान से कुत्ते, कौए, गाय, यक्ष की प्रतिमा आदि समझना । जो जिसके भक्त हो उनके आगे खुद उसकी प्रशंसा करे । कोई साधु भिक्षा के लिए गए हो वहाँ भिक्षा पाने के लिए निर्ग्रन्थ को आश्रित करके श्रावक के आगे बोले कि, हे उत्तम श्रावक ! तुम्हारे यह गुरु तो काफी ज्ञानवाले हैं, शुद्ध क्रिया और अनुष्ठान पालन करने मे तत्पर हैं, मोक्ष के अभिलाषी हैं। बौद्ध के भक्त के आगे वहाँ बौद्ध भिक्षुक भोजन करते हो तो उनकी प्रशंसा करे इस प्रकार तापस, परिव्राजक और गोशाल के मत के अनुयायी के आगे उनकी प्रशंसा करे । ब्राह्मण के भक्त के सामने कहे कि, ब्राह्मण को दान देने से ऐसे फायदे होते हैं । कृपण के भक्त के सामने कहे कि, बेचारे इन लोगों को कौन देगा। इन्हें देने से तो जगत में दान की जयपताका मिलती है । आदि । श्वान आदि के भक्त के सामने कहे कि, बैल आदि को तो घास आदि मिल जाता है, जब कि कुत्त आदि को तो लोग हट हट करके या लकड़ी आदि मारकर नीकाल देते हैं। इसलिए बेचारे को सुख से खाना भी नहीं मिलता । काक, तोता आदि शुभाशुभ बताते हैं । यक्ष की मूरत के भक्त के सामने यक्ष के प्रभाव आदि का बयान करे।। इस प्रकार आहार पाना काफी दोष के कारण हैं । क्योंकि साधु इस प्रकार दान की प्रशंसा करे तो अपात्र में दान की प्रवृत्ति होती है और फिर दूसरों को ऐसा लगे कि यह साधु बौद्ध आदि की प्रशंसा करते हैं इसलिए जरुर मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 36
SR No.034710
Book TitleAgam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 41 2, & agam_pindniryukti
File Size2 MB
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