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________________ आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, "पिंडनियुक्ति' हो, साधु के लिए घर के बाहर उजाले में बनाया हुआ चूल्हा हो । चूल्हा अपने लिए बनाया हो लेकिन साधु को लाभ मिले इस आशय से अंधेरे में से वो चूल्हा बाहर उजाले में लाया गया हो । यदि गृहस्थ ने इन तीन प्रकार के चूल्हे में से किसी एक चूल्हे पर भोजन पकाया हो तो दो दोष लगे । एक प्रादुष्करण और दूसरा पूतिदोष । चूल्हा अपने लिए बनाया हो और वो चूल्हा बाहर लाकर पकाया हो तो एक ही प्रादुष्करण दोष लगे । चूल्हा बाहर रखकर रसोई तैयार की हो वहाँ साधु भिक्षा के लिए जाए और पूछे कि, 'बाहर रसोई क्यों की है ?' सरल हो तो बता दे कि, अंधेरे में तुम भिक्षा नहीं लोगे, इसलिए चूल्हा बाहर लाकर रसोई बनाई है ।' ऐसा आहार साधु को न कल्पे । यदि गृहस्थ ने अपने लिए भीतर गर्मी लग रही हो या मक्खियाँ हो इसलिए चूल्हा बाहर लाए हो और रसोई बनाई हो तो कल्पे। प्रकाश करने के प्रकार - दीवार में छिद्र करके । दरवाजा छोटा हो तो बड़ा करके । नया दरवाजा बनाकर। छत में छिद्र करके या उजाला आए ऐसा करके यानि नलिये हटा दे । दीप या बिजली करे । इस प्रकार गृहस्थ ने अपनी सुविधा के लिए किया हो तो वहाँ से आहार लेना कल्पे । लेकिन यदि साधु का लाभ मिले इसलिए किया हो तो साधु को आहार लेना न कल्पे । क्योंकि उजाला आदि करने से या भीतर से बाहर लाना आदि में पृथ्वीकायादि जीव की विराधना साधु निमित्त से हो इसलिए ऐसा प्रादुष्करण दोषवाला आहार साधु को नहीं वहोरना चाहिए। सूत्र-३३४-३४३ साधु के लिए बिका हुआ लाकर देना क्रीतदोष कहलाता है । क्रीतदोष दो प्रकार से है । १. द्रव्य से और । द्रव्य के और भाव के दो-दो प्रकार - आत्मक्रीत और परक्रीत । परद्रव्यक्रीत तीन प्रकार से । सचित्त, अचित्त और मिश्र। आत्मद्रव्यक्रीत - साधु अपने पास के निर्माल्यतीर्थ आदि स्थान में रहे प्रभावशाली प्रतिमा की - १. शेषचावल आदि, २. बदबू - खुशबू द्रव्य वासक्षेप आदि, ३. गुटिका रूप परावर्तनकारी जड़ीबुट्टी आदि, ४. चंदन, ५. वस्त्र का टुकड़ा आदि गृहस्थ को देने से गृहस्थ भक्त बने और आहारादि अच्छा और ज्यादा दे । वो आत्मक्रीतद्रव्य माना जाता है । ऐसा आहार साधु को न कल्पे । क्योंकि चीज देने के बाद कोई बीमार हो जाए तो शासन का ऊड्डाह होता है । इस साधु ने हमें बीमार बनाया, कोई बीमार हो और अच्छा हो जाए तो कईं लोगों को बताए कि, 'किसी साधु ने मुझे कुछ चीज दी, उसके प्रभाव से मैं अच्छा हो गया। तो इससे अधिकरण हो । आत्मभावक्रीत - आहारादि अच्छा मिले इस लिए व्याख्यान करे । वाक्छटा से सुननेवाले को खींचे, फिर उनके पास जाकर माँगे या सुननेवाले हर्ष में आ गए हो तब माँगे यह आत्मभावक्रीत । किसी प्रसिद्ध व्याख्यानकार उनके जैसे आकारवाले साधु को देखकर पूछे कि, प्रसिद्ध व्याख्यानकार कहलाते हैं वो तुम ही हो ?' तब वो चूप रहे । या तो कहे कि साधु ही व्याख्यान देते हैं दूसरे नहीं।' इसलिए वो समझे कि, यह वो ही साधु है । गम्भीर होने से अपनी पहचान नहीं देते । इस प्रकार गृहस्थ भिक्षा ज्यादा और अच्छी दे । खुद समय नहीं होने के बावजूद भी समयरूप बताने से आत्मभावक्रीत होता है । कोई पूछे कि कुशल वक्ता क्या तुम ही हो? तो कहे कि, भीखारा उपदेश देते हैं क्या ? या फिर कहे कि क्या मछवारा, गृहस्थ, ग्वाला, सिर मुंडवाया हो और संसारी हो वो वक्ता होंगे? इस प्रकार जवाब दे इसलिए पूछनेवाला उन्हें वक्ता ही मान ले और ज्यादा भिक्षा दे । इसे भी आत्मभावक्रीत कहते हैं । इस प्रकार वादी, तपस्वी, निमित्तक के लिए भी ऊपर के अनुसार उत्तर दे । या आहारादि के लिए लोगों को कहे कि, 'हम आचार्य हैं, हम उपाध्याय हैं ।' आदि । इस प्रकार पाया हआ आहार आदि आत्मभावक्रीत कहलाता है। ऐसा आहार साधु को न कल्पे । परद्रव्यक्रीत - साधु के लिए किसी आहारादि बिकता हुआ लाकर दे । वो सचित्त चीज देकर खरीदे, अचित्त चीज देकर खरीदे या मिश्र चीज देकर खरीदे उसे परद्रव्यक्रीत कहते हैं । इस प्रकार लाया गया आहार साधु को न कल्पे । परभावक्रीत जो तसवीर बताकर भिक्षा माँगनेवाले आदि हैं वो साधु के लिए अपनी तसवीर आदि बताकर चीज खरीदे तो वो परभावक्रीत है । इन दोष में तीन दोष लगते हैं । क्रीत, अभ्याहृत और स्थापना । मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 24
SR No.034710
Book TitleAgam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 41 2, & agam_pindniryukti
File Size2 MB
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