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________________ आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, "पिंडनियुक्ति' उपयोग रहने से (यदि आधाकर्मादि दूसरे दोष न हो तो) साधु को कल्पे । इसमें स्थापना दोष नहीं माना जाता, लेकिन उसके अलावा तीसरे आदि घरमें आहार लेकर खड़े हो तो उस स्थापना दोषवाला आहार साधु को न कल्पे। साधु को देने के लिए आहारादि रखा हो और साधु न आए और गृहस्थ को ऐसा लगे कि - 'साधु नहीं आए तो हम उपयोग कर ले। इस प्रकार यदि वो आहारादि में अपने उपयोग का संकल्प कर दे तो ऐसा आहार साधु को कल्पे सूत्र-३११-३२५ साधु को वहोराने की भावना से आहार आदि जल्द या देर से बनाना प्राभूतिका कहते हैं । यह प्राभृतिका दो प्रकार की है । बादर और सूक्ष्म । उन दोनों के दो-दो भेद हैं । अवसर्पण यानि जल्दी करना और उत्सर्पण यानि देर से करना । वो साधु समुदाय आया हो या आनेवाले हो उस कारण से अपने यहाँ लिए गए ग्लान आदि अवसर देर से आता हो तो जल्द करे और पहले आता हो तो देर से करे । बादर अवसर्पण - साधु समुदाय विहार करते-करते अपने गाँव पहुँचे । श्रावक सोचता है कि, 'साधु महाराज थोड़े दिन में विहार करके वापस चले जाएंगे, तो मुजे लाभ नहीं मिलेगा । इसलिए मेरे पुत्र-पुत्री के ब्याह जल्द करूँ | जिससे वहोराने का लाभ मिले । ऐसा सोचकर जल्द ब्याह करे । उसमें जो रसोई आदि बनाई जाए वो साधु को न कल्पे । बादर उत्सर्पण - साधु के देर से आने का पता चले इसलिए सोचे कि ब्याह हो जान के बाद मुझे कोई लाभ नहीं होगा । इसलिए ब्याह देर से करूँ, जिससे मुझे भिक्षा आदि का लाभ मिले । ऐसा सोचकर शादी रूकवा दे । उसमें जो पकाया जाए वो साधु को न कल्पे । सूक्ष्म अवसर्पण - किसी स्त्री चरखा चलाती हो, खांड़ती हो या कोई काम करती हो तब बच्चा रोते-रोते खाना माँगे तब वो स्त्री बच्चे को कहे कि, अभी मैं यह काम कर रही हूँ, वो पूरा होने के बाद तुम्हें खाना दूंगी इसलिए रोना मत । इस समय गोचरी के लिए आए हुए साधु सुने तो वो उस घर में गोचरी के लिए न जाए । क्योंकि यदि जाए तो वो स्त्री गोचरी देने के लिए खड़ी हो, साधु को वहोराकर उस बच्चे को भी खाना दे इसलिए जल्दी हुआ । फिर हाथ आदि धोकर काम करने के लिए बैठे, इसलिए हाथ धोना आदि का आरम्भ साधु के निमित्त से हो या साधु ने न सुना हो और ऐसे ही चले गए तब बच्चा बोल उठे कि, 'क्यों तुम तो कहती थी न जल्द से खड़ी हो गई?' वहाँ सूक्ष्म अवसर्पण समझकर साधु को लेना नहीं चाहिए । ऐसे घर में साधु भिक्षा के लिए न जाए। सूक्ष्म उत्सर्पण – भोजन माँगनेवाले बच्चे को स्त्री कहे कि, 'अभी चूप रहो । साधु घूमते-घूमते यहाँ भिक्षा के लिए आएंगे तब खड़े होकर तुम्हें खाना दूंगी।' यह सुनकर भी वहाँ साधु न जाए । इसमें जल्द देना था उस साधु के निमित्त से देर होती है और साधु के निमित्त से आरम्भ होता है । साधु ने सुना न हो और बच्चा साधु की ऊंगली पकड़कर अपने घर ले जाना चाहे, साधु उसे रास्त में पूछे । बच्चा - सरलता से बता दे । वहाँ सूक्ष्म उत्सर्पण प्राभृतिका दोष समझकर साधु को भिक्षा नहीं लेनी चाहिए। सूत्र - ३२६-३३३ साधु को वहोराने के लिए उजाला करके वहोराना यानि प्रादुष्करण दोष । प्रादुष्करण दोष दो प्रकार से । १. प्रकट करना और २. प्रकाश करना । प्रकट करना यानि, आहारादि अंधेरे में से लेकर उजाले में रखना । प्रकाश करना यानि, पकाना कि जो स्थान हो वहाँ जाली, दरवाजा आदि रखकर उजाला हो ऐसा करना । और रत्न, दीया, ज्योति से उजाला करके अंधेरे में रही चीज को बाहर लाना । इस प्रकार प्रकाश करके दी गई गोचरी साधु को न कल्पे । लेकिन यदि गृहस्थ ने अपने लिए प्रकट किया हो या उजाला किया हो तो साधु को वो भिक्षा कल्पे । प्रादुष्करण दोषवाली गोचरी शायद अनजाने में आ गई हो और फिर पता चले कि उस समय न हो या आधा लिया हो तो भी वो आहार परठवे फिर वो पात्र तीन बार पानी से धोकर, सूखाने के बाद उसमें दूसरा आहार लाना कल्पे शायद साफ करना रह जाए और उसमें दूसरा शुद्ध आहारा लाए तो यह विशुद्ध कोटि होने से बाध नहीं है। चूल्हा तीन प्रकार का होता है । अलग चूल्हा । जहाँ घूमाना हो वहाँ घूमा सके ऐसा, साधु के लिए बनाया मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 23
SR No.034710
Book TitleAgam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 41 2, & agam_pindniryukti
File Size2 MB
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