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________________ आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति' पानी से साफ करने के बाद दूसरा आहार लेना कल्पे । गोचरी के लिए गए साधु को घर में जमण आदि होने की निशानी दिखे तब मन में पूतिकर्म की शंका हो, चालाकी से गृहस्थ को या उसकी स्त्री आदि को पूछे कि, 'जमण हुए - साधु के लिए आहार आदि करने के कितने दिन हए ?' या तो उनकी बात से पता कर ले । तीन दिन से ज्यादा दिन हए हो तो पूति नहीं होती । इस प्रकार मालूम करते पूतिदोष का परिहार करके शुद्ध आहार की गवेषणा करे । सूत्र - २९५-३०१ मिश्रदोष तीन प्रकार से - १. किसी भी भिक्षाचर के लिए, २. धोखेबाज के लिए, ३. साधु के लिए । अपने लिए और यावत् साधु आदि के लिए पहले से इकट्ठा पकाया हो तो उसे मिश्रदोष कहते हैं । मिश्रदोषवाला आहार एक हजार घर में घूमते-घूमते जाए तो भी वो शुद्ध नहीं होता । मिश्रदोषवाला आहार पात्र में आ गया हो तो वो आहार ऊंगली या भस्म से दूर करने के बाद वो पात्र तीन बार धोने के बाद गर्मी में सूखाने के बाद उस पात्र में दूसरा आहार लाना कल्पे।। किसी भी यानि सारे भिक्षुक के लिए किया हुआ पता करने का तरीका - 'किसी स्त्री किसी साधु को भिक्षा देने के लिए जाए वहाँ घर का मालिक या दूसरे किसी उसका निषेध करे कि इसमें मत देना । क्योंकि यह रसोई सबके लिए नहीं बनाई, इसलिए यह दूसरी रसोई जो सबको देने के लिए बनाई है उसमें से दो ।' पकाना शूरु करते हो वहीं कोई कहे कि, 'इतना पकाने से पूरा नहीं होगा, ज्यादा पकाओ कि जिससे सभी भिक्षुक को दे सके।' इस अनुसार सुना जाए तो पता चल सके कि, 'यह रसोई यावदर्थिक, सारे भिक्षुक के लिए मिश्र दोषवाली है। ऐसा आहार साधु को लेना न कल्पे । पाखंडी मिश्र - गृहनायक पकानेवाले को बोले कि, 'पाखंडी को देने के लिए साथ में ज्यादा पकाना' वो पाखंडी मिश्रदोषवाला हुआ । वो साधु को लेना न कल्पे, क्योंकि पाखंड़ी में साधु भी आ जाते हैं । श्रमणमिश्र अलग नहीं बताया क्योंकि पाखंडी कहने से श्रमण भी आ जाते हैं । निर्ग्रन्थ मिश्र - कोई ऐसा बोले कि, 'निर्ग्रन्थ साधु को देने के लिए साथ में ज्यादा पकाना' वो निर्ग्रन्थ मिश्र कहलाता है। वो भिक्षा भी साधु को न कल्पे। सूत्र-३०२-३१० गृहस्थने अपने लिए आहार बनाया हो उसमें से साधु को देने के लिए रख दे वो तो स्थापना दोषवाला आहार कहलाता है । स्थापना के छह प्रकार - स्वस्थान स्थापना, परस्थान स्थापना, परम्पर स्थापना, अनन्तर स्थापना, चिरकाल स्थापना और इत्वरकाल स्थापना । स्वस्थान स्थापना - आहार आदि जहाँ तैयार किया हो वहीं चूल्हे पर साधु को देने के लिए रख दे । परस्थान स्थापना - जहाँ आहार पकाया हो वहाँ से लेकर दूसरे स्थान पर छाजली, शीका आदि जगह पर साधु को देने के लिए रख दे । स्थापना रखने के द्रव्य दो प्रकार के होते हैं । कुछ विकारी और कुछ अविकारी । जिन द्रव्य का फर्क कर सके वो विकारी । दूध, ईख आदि दूध में से दही, छाछ, मक्खन, घी आदि होते हैं । ईख में से रस, शक्कर, मोरस, गुड़ आदि बनते हैं । जिस द्रव्य में फर्क नहीं पड़ता वो अविकारी । घी, गुड़ आदि । परम्परा स्थापना - विकारी द्रव्य, दूध, दही, छाछ आदि साधु को देने के लिए रखे । अनन्तर, स्थापना, अविकारी द्रव्य, घी, गुड़ आदि साधु को देने के लिए रखे । चिरकाल स्थापना - घी आदि चीज, जो उसके स्वरूप में फर्क हुए बिना जब तक रह सके तब तक साधु को देने के लिए रख दे । यह चिरकाल स्थापना उत्कृष्ट देश पूर्वकोटी साल तक होती है । यहाँ ध्यान में रखा जाए कि गर्भ से या जन्म से लेकिन आठ वर्ष पूरे न हए हो उसे चारित्र नहीं होता और पूर्वक्रोड साल से ज्यादा आयुवाले को भी चारित्र नहीं होता । इस कारण से चिरकाल स्थापना उत्कृष्ट आठ वर्ष न्यून पूर्वक क्रोड़ वर्ष की शास्त्रकार ने बताई है। इत्वरकाल स्थापना - एक हार में रहे घर में से जब एक घर से साधु भिक्षा लेते हो तब या उस साधु के साथ दूसरा संघाटक साधु पास-पास के जिन दो घरों मे दोष का उपयोग रख सके ऐसा हो तो ऐसे दो घर में से गृहस्थ साधु को वहोराने के लिए आहार आदि हाथ में लेकर खड़ा रहे तो इत्वरकाल स्थापना । इस स्थापना में मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 22
SR No.034710
Book TitleAgam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 41 2, & agam_pindniryukti
File Size2 MB
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