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आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति' दोष लगता है । किसी साधु आधाकर्मी आहार खाते हो उसे देखकर कोई उनकी प्रशंसा करे कि, 'धन्य है, ये सुख से जीते हैं।' जब कि दूसरे कहें कि, धिक्कार है इन्हें कि, शास्त्र में निषेध किए गए आहार को खाते हैं । जो साधु अनुमोदना करते हैं उन साधुओं को अनुमोदना का दोष लगता है, वो सम्बन्धी कर्म बाँधते हैं । जब कि दूसरों को वो दोष नहीं लगता।
प्रतिसेवना दोष में प्रतिश्रवणा - संवास और अनुमोदना चार दोष लगे, प्रतिश्रवणा में संवास और अनुमोदना के साथ तीन दोष लगे । संवास दोष में संवास और अनुमोदना दो दोष लगे। अनुमोदना दोष में एक अनुमोदना दोष लगे । इसलिए साधु ने इन चार दोष में से किसी दोष न लगे उसकी देखभाल रखे।
आधाकर्म किसके जैसा है ? आधाकर्मी आहार वमेल भोजन विष्टा, मदिरा और गाय के माँस जैसा है। आधाकर्मी आहार जिस पात्र में लाए हो या रखा हो उस पात्र का गोबर आदि से घिसकर तीन बार पानी से धोकर सूखाने के बाद, उसमें दूसरा शुद्ध आहार लेना कल्पे । साधु ने असंयम का त्याग किया है, जब कि आधाकर्मी आहार असंयमकारी है, इसलिए वमेल चाहे जितना भी सुन्दर हो लेकिन नहीं खाते । और फिर तिल का आँटा, श्रीफल, आदि फल विष्टा में या अशुचि में गिर जाए तो उसमें विष्टा या अशुचि गिर जाए तो वो चीज खाने के लायक नहीं रहती । ऐसे शुद्ध आहार में आधाकर्मी आहार गिर जाए या उसमें मिल जाए तो वो शुद्ध आहार भी उपयोग करने के लायक नहीं रहता और उस पात्र को भी गोबर आदि घिसकर तीन बार धोने के बाद उस पात्र में दूसरा आहार लेना कल्पे ।
आधाकर्म खाने में कौन-से दोष हैं ? आधाकर्मी आहार ग्रहण करने में - १. अतिक्रम, २. व्यतिक्रम, ३. अतिचार, ४. अनाचार, ५. आज्ञाभंग, ६. अनवस्था, ७. मिथ्यात्व और ८. विराधना दोष लगता है। अतिक्रम - आधाकर्मी आहार के लिए न्यौता सुने, ग्रहण करनेवाले की ईच्छा बताए या निषेध न करे और लेने जाने के लिए कदम न उठाए तब तक अतिक्रम नाम का दोष लगता है | व्यतिक्रम - आधाकर्मी आहार लेने के लिए वसति उपाश्रय में से नीकलकर गृहस्थ के वहाँ जाए और जब तक आहार ग्रहण न करे तब तक व्यतिक्रम नाम का दोष लगता है । अतिचार - आधाकर्मी आहार ग्रहण करके वसति में आए, खाने के लिए बैठे और जब तक नीवाला मुँह में न जाए तब तक अतिचार नाम का दोष लगता है । अनाचार - आधाकर्मी आहार का नीवाला मुँह में डालकर नीगल जाए तब अनाचार नाम का दोष लगता है। अतिक्रम आदि दोष उत्तरोत्तर ज्यादा से ज्यादा चारित्रधर्म का उल्लंघन करनीवाले उग्र दोष हैं।।
आज्ञाभंग - बिना कारण, स्वाद की खातिर आधाकर्मी खाने से आज्ञाभंग दोष लगता है। श्री तीर्थंकर भगवंत ने बिना कारण आधाकर्मी आहार खाने का निषेध किया है । अनवस्था - एक साधु दूसरे साधु को आधाकर्मी आहार खाते हुए देखे इसलिए उन्हें भी आधाकर्मी आहार खाने की ईच्छा हो, उन्हें देखकर तीसरे साधु को ईच्छा हो ऐसे परम्परा बढ़े ऐसे परम्परा बढ़ने से संयम का सर्वथा उच्छेद होने का अवसर आए । इसलिए अनवस्था नाम का दोष लगता है । मिथ्यात्व - दीक्षा ग्रहण करे तब साधु ने सभी सावध योग की प्रतिज्ञा त्रिविधत्रिविध से की हो, आधाकर्मी आहार खाने में जीववध की अनुमति आ जाती है । इसलिए आधाकर्मी आहार नहीं खाना चाहिए । जब वो साधु दूसरे साधु को आधाकर्मी आहार खाते हुए देखें तो उनके मन में लगे कि, 'यह साधु असत्यवादी हे, बोलते कुछ हैं और करते कुछ हैं । इसलिए उस साधु की श्रद्धा चलायमान बने और मिथ्यात्व पाए।
विराधना - विराधना तीन प्रकार से | आत्म विराधना, संयम विराधना, प्रवचन विराधना । अतिथि की प्रकार साधु के लिए आधाकर्मी आहार, गृहस्थ गौरवपूर्वक बनाए, इसलिए स्वादिष्ट और स्निग्ध हो और इससे ऐसा आहार साधु आदि खाए । ज्यादा खाने से बीमारी आए, स्वाध्याय न हो, सूत्र-अर्थ का विस्मरण हो, भूल जाए । देह में हलचल होने से चारित्र की श्रद्धा कम हो, दर्शन का नाश हो । प्रत्युपेक्षणा की कमी यानि चारित्र का नाश । ऐसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र समान संयमी आत्मा की विराधना हुई । बीमारी में देखभाल करने में छह काय जीव की विराधना और वैयावच्च करनेवाले साधु को सूत्र अर्थ की हानि हो, इसलिए संयम विराधना | लम्बे अरसे की
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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