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आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति' के आशयभूत कर्म ही बाँधते हैं, तो फिर जो आधाकी आहार खाए उनको बँध हो उसके लिए क्या कहें ?
प्रतिश्रवणा - आधाकर्मी लानेवाले साधु को गुरु दाक्षिण्यतादि 'लाभ' कहे, आधाकर्मी आहार लेकर किसी साधु गुरु के पास आए और आधाकर्मी आहार आलोचना करे वहाँ गुरु 'अच्छा हुआ तुम्हें यह मिला' ऐसा कहे, इस प्रकार सुन ले । लेकिन निषेध न करे तो प्रतिश्रवणा कहते हैं । उस पर राजपुत्र का दृष्टांत । गुणसमृद्ध नाम के नगर में महाबल राजा राज करे । उनकी शीला महारानी है। उनके पेट से एक पुत्र हुआ उसका नाम विजित समर रखा। उम्र होते ही कुमार को राज्य पाने की ईच्छा हुई और मन में सोचने लगा कि मेरे पिता वृद्ध हुए हैं फिर भी मरे नहीं, इसलिए लम्बी आयुवाले लगते हैं । इसलिए मेरे सुभट की सहाय पाकर मेरे पिता को मार डालूँ और मैं राजा बन जाऊं । इस प्रकार सोचकर गुप्तस्थान में अपने सुभट को बुलाकर अभिप्राय बताया । उसमें से कुछ ने कहा
मार ! तुम्हारा विचार उत्तम है । हम तुम्हारे काम में सहायता करेंगे । कुछ लोगों ने कहा कि, इस प्रकार करो । कुछ चूप रहे लेकिन कोई जवाब नहीं दिया । कुछ सुभट को कुमार की बात अच्छी न लगी इसलिए राजा के पास जाकर गुप्त में सभी बातें जाहीर कर दी । यह बात सुनते ही राजा कोपायमान हुआ और राजकुमार और सुभट को कैद किया । फिर जिन्होंने 'सहाय करेंगे' ऐसा कहा था, 'ऐसे करो' ऐसा कहा था और जो चूप रहे थे उन सभी सुभटों को और राजकुमार को मार डाला । जिन्होंने राजा को खबर दी थी उन सुभटों की तनखा बढ़ाई, मान बढ़ाया और अच्छा तौहफा दिया।
किसी साधु ने चार साधुओं को आधाकर्मी आहार के लिए न्यौता दिया । यह न्यौता सुनकर एक साधु ने वो आधाकर्मी आहार खाया । दूसरे ने ऐसा कहा कि, मैं नहीं खाऊंगा, तुम खाओ । तीसरा साधु कुछ न बोला। जब कि चौथे साधु ने कहा कि, साधु को आधाकर्मी आहार न कल्पे, इसलिए तुम वो आहार मत लेना । इसमें पहले तीन को 'प्रतिश्रवणा' दोष लगे । जब कि चौथे साधु के निषेध करने से उसे 'प्रतिश्रवणा' दोष नहीं लगता।
संवास - आधाकर्मी आहार खाते हो उनके साथ रहना । काफी रूक्ष वृत्ति से निर्वाह करनेवाले साधु को भी आधाकर्मी आहार खानेवाले के साथ का सहवास, आधाकर्मी आहार का दर्शन, गंध और उसकी बातचीत भी साधु को ललचाकर नीचा दीखानेवाली है। इसलिए आधाकर्मी आहार खानेवाले साधु के साथ रहना भी न कल्पे । उन पर चोरपल्ली का दृष्टांत । वसंतपर नगर में अरिमर्दन राजा राज करे । उनकी प्रियदर्शना रानी है। वसंतपुर नगर के पास में थोड़ी दूर भीम नाम की पल्ली आई हुई है । कुछ भील जाति के चोर रहते हैं और कुछ वणिक रहते हैं। भील लोग के गाँव में जाकर लूँटमार करे, लोगों को परेशान करे, ताकतवर होने से किसी सामंत राजा या मांडलिक राजा उन्हें पकड़ नहीं सकते । दिन ब दिन भील लोगों का त्रास बढ़ने लगा इसलिए मांडलिक राजा ने अरिमर्दन राजा को यह हकीकत बताई । यह सुनकर अरिमर्दन राजा कोपायमान हुआ । कईं सुभट आदि सामग्री सज्ज करके भील लोगों की पल्ली के पास आ पहुँचे । भील को पता चलते ही, वो भी आए । दोनों के बीच तुमुल युद्ध हुआ । उसमें कुछ भील मर गए, कुछ भील भाग गए । राजा ने पूरी पल्ली को घेर लिया और सबको कैद किया । वहाँ रहनेवाले वणिक ने सोचा कि, हम चोर नहीं है, इसलिए राजा हमको कुछ नहीं करेंगे । ऐसा सोचकर उन्होंने नासभाग नहीं की लेकिन वहीं रहे । लेकिन राज के हुकम से सैनिक ने उन सबको कैद किया और सबको राजा के पास हाजिर किया । वणिक ने कहा कि हम वणिक है लेकिन चोर नहीं है । राजा ने कहा कि, तुम भले ही चोर नहीं हो लेकिन तुम चोर से भी ज्यादा शिक्षा के लायक हो, क्योंकि हमारे अपराधी ऐसे भील लोगों के साथ रहे हो । ऐसा कहकर सबको सझा दी । ऐसे साधु भी आधाकर्मी आहार खानेवाले के साथ रहे तो उसे भी दोष लगता है । इसलिए आधाकर्मी आहार खाते हो ऐसे साधु के साथ नहीं रहना चाहिए।
अनुमोदना - आधाकर्मी आहार खानेवाले की प्रशंसा करना । यह पून्यशाली है । अच्छा-अच्छा मिलता है और हररोज अच्छा खाते हैं । या किसी साधु ऐसा बोले कि, 'हमें कभी भी ईच्छित आहार नहीं मिलता, जब की इन्हें तो हमेशा ईच्छित आहार मिलता है, वो भी पूरा, आदरपूर्वक, समय पर और मौसम के उचित मिलता है, इसलिए ये सुख से जीते हैं, सुखी हैं । इस प्रकार आधाकर्मी आहार करनेवाले की प्रशंसा करने से अनुमोदना का
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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