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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' पात्रा से ज्ञान संपत्ति हो । ऊंच-नीच पात्रा से चारित्र का भेद-विनाश होता है । दोषवाले पात्रा से दीवानगी होती है। पड़घी रहित पात्रा से गच्छ और चारित्र में स्थिरता नहीं रहती । खीले जैसे ऊंचे पात्रा से गच्छ और चारित्र में स्थिरता नहीं रहती । कमल जैसे चीड़े पात्रा से अकुशल होता है । व्रणछिद्रवाले पात्रा से शरीर में गर्मी आदि होती है। भीतर या बाहर से जले हुए पात्रा से मौत होती है । सूत्र-१०४६
पात्रबँध - पात्रा बँधे और किनार चार अंगुल बचे ऐसे रखने चाहिए। सूत्र - १०४७-१०४९
दोनों गुच्छा - एवं पात्रकेसरिका इन तीनों एक वेंत और चार अंगुल जितने रखने चाहिए दोनों गुच्छ भी ऊनी के रखने चाहिए । रज आदि से रक्षा के लिए नीचे का गुच्छा, गुच्छा से पड़ला की प्रमार्जना की जाए । पात्रा प्रमार्जन के लिए छोटे नर्म सूती कपड़े की पात्रकेसरिका - पात्र मुखवस्त्रिका जो पात्रा दीठ एक एक अलग रखे। सूत्र - १०५०-१०५५
पड़ला - कोमल और मजबूत मौसम भेद से तीन, पाँच या सात, इकट्ठे करने से सूर्य की किरणें न दिखे ऐसे ढाई हाथ लम्बे और छत्तीस अंगुल चौड़े रखना अच्छा या उससे निम्न कक्षा के हो तो ऋतुभेद से नीचे के अनुसार धारण किया जाता है।
उत्कृष्ट मजबूत पड़ला क्रमिक ३-४-५, मध्यम (कुछ जीर्ण) पड़ला क्रमिक ४-५-६, जीर्ण पड़ला क्रमिक ५-६-७ गर्मी, शर्दी, वर्षा में रखना । भिक्षा लेने जाते हुए फूल, पत्र आदि से रक्षा करने के लिए पात्रा पर ढंकने के लिए एवं लिंग ढंकने के लिए पड़ला चाहिए। सूत्र-१०५६-१०५७
रजस्त्राण-पात्रा के प्रमाण में रखना । रज आदि से रक्षा के लिए प्रदक्षिणावर्त्त पात्रा को लपेटना । उसे पात्रा के अनुसार अलग रखना। सूत्र-१०५८-१०५९
तीन वस्त्र- शरीर प्रमाण, ओढ़ने से खंभे पर रहे । ढाई हाथ चौड़े, लम्बाई में देह प्रमाण दो सूती और एक ऊनी । घास, अग्नि आदि ग्रहण न करना पड़े, एवं शर्दी आदि से रक्षा हो उसके लिए और धर्मध्यान, शुक्लध्यान अच्छी प्रकार से हो सके उसके लिए वस्त्र रखनेको भगवान ने कहा है। सूत्र-१०६०-१०६४
रजोहरण - मूल में घन, मध्य में स्थिर और दशी के पास कोमल दशीवाला दांडी-निषधा के साथ अँगूठे के पर्व में प्रदेश की ऊंगली रखने से जितना हिस्सा चौड़ा रहे उतनी चौड़ाईवाला रखे । मध्य में डोर से तीन बार बाँधे । कुल बत्तीस अंगुल लम्बा । (दांडी चौबीस अंगुल, दशी आँठ अंगुल) हीन अधिक हो तो दोनो मिलकर बत्तीस अंगुल हो उतना रखे । लेने - रखने की क्रिया में पूंजने-प्रमार्जन के लिए एवं साधु लिंग समान रजोहरण धारण करे सूत्र-१०६५-१०६६
मुहपत्ति - सूती एक वेंत चार अंगुल की एक और दूसरी मुख के अनुसार ढंक सके उतनी वसति प्रमार्जना के समय बाँधने के लिए । संपातिम जीव की रक्षा के लिए, बोलते समय मुँह के पास रखने के लिए । एवं काजो लेने से रज आदि मुँह में न आ जाए उसके लिए दूसरी नासिका के साथ मुँह पर बाँधने के लिए ऐसे दो। सूत्र-१०६७-१०७४
मात्रक - प्रस्थ प्रमाण । आचार्य आदि को प्रायोग्य लेने के लिए । या ओदन सुप से भरा दो गाऊं चलकर आया हुआ साधु खा सके उतना । (मात्रक पात्र ग्रहण की विधि भी नियुक्तिक्रम १०७१ से १०७४ में है।)
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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