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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' अपने-अपने यथायोग्य स्थान पर काऊस्सग्ग में रहकर स्वाध्याय करे।
कोई ऐसा कहते हैं कि, साधु सामायिक सूत्र कहकर काऊस्सग्ग में ग्रंथ के अर्थ का पाठ करे, जब तक आचार्य न आए तब तक चिन्तवन करे । आचार्य आकर सामायिक सूत्र कहकर, दैवसिक अतिचार चिंतवे, साधु भी मन में दैवसिक अतिचार चिंतवे । दूसरे ऐसा कहते हैं कि, आचार्य के आने पर स्वाध्याय करनेवाले साधु भी आचार्य के साथ सामायिक सूत्र चिन्तवन करने के बाद अतिचार चिन्तवन करे । आचार्य अपने अतिचार दो बार चिन्तवन करे, साधु एक बार चिन्तवन करे । क्योंकि साधु गोचरी आदि के लिए गए हों तो उतने में चिन्तवन न कर सके।
खड़े खड़े काऊस्सग्ग करने के लिए असमर्थ हो, ऐसे बाल, वृद्ध, ग्लान आदि साधु बैठकर कायोत्सर्ग करे। इस प्रकार आवश्यक पूर्ण करे । ऊंचे बढते स्वर से तीन स्तति मंगल के लिए बोले, तब काल के ग्रहण का समय हुआ कि नहीं उसकी जाँच करे। सूत्र - ९७५-१००५
काल दो प्रकार के हैं - व्याघात और अव्याघात । व्याघात - अनाथ मंडप में जहाँ वैदेशिक के साथ या खंभा आदि के साथ आते-जाते संघटो हो एवं आचार्य श्रावक आदि के साथ धर्मकथा करते हो तो कालग्रहण न करे । अव्याघात किसी प्रकार का व्याघात न हो तो कालग्रही और दांडीधर आचार्य महाराज के पास जाकर आज्ञा माँगे कि, हम कालग्रहण करे ? लेकिन यदि नीचे के अनुसार व्याघात हो तो काल ग्रहण न करे । आचार्य को न पूछा हो या अविनय से पूछा हो, वंदन न किया हो, आवस्सही न कही हो, अविनय से कहा हो, गिर पड़े, इन्द्रिय के विषय प्रतिकूल हो, दिग्मोह हो, तारे गिरे, अस्वाध्याय हो, छींक आए, उजेही लगे इत्यादि व्याघात - विघ्न आदि हो तो कालग्रहण किए बिना वापस मुड़े । शुद्ध हो तो कालग्रहण करे । दूसरे साधु उपयोग पूर्वक ध्यान रखे।
कालग्रही कैसा हो ? प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी, मोक्षसुख का अभिलाषी, पापभीरू, गीतार्थ सत्त्वशील हो ऐसा साधु कालग्रहण करे । काल चार प्रकार के- १. प्रादोषिक, २. अर्धरात्रिक, ३. वैरात्रिक, ४. प्राभातिक । प्रादेशिक काल में सबके साथ सज्झाय स्थापना करे, बाकी तीन में साथ में या अलग-अलग स्थापना करे । (यहाँ नियुक्ति में कुछ विधि एवं अन्य बातें भी है जो परम्परा के अनुसार समझे क्योंकि विधि और वर्तमान परम्परा में फर्क है।) ग्रीष्मकाल में तीन तारा गिरे तो शिशिरकाल में पाँच तारे गिरे तो और वर्षाकाल में सात तारे गिरे तो काल का वध होता है । वर्षाकाल में तीनों दिशाए खुली हो तो प्राभातिक और चार दिशाएं खुली हो तो तीनों कालग्रहण किया जाए । वर्षाकाल में आकाश में तारे न दिखे तो भी कालग्रहण करे । प्रादेशिक और अर्धरात्रिक काल उत्तर दिशा में, वैरात्रिक काल उत्तर या पूरब में, प्राभातिक काल पूरब में लिया जाए । प्रादेशिक काल शुद्ध हो, तो स्वाध्याय करके पहली दूसरी पोरिसी में जागरण करे, काल शुद्ध न आए तो उत्कालिक सूत्र का स्वाध्याय करे या सुने ।
__ अपवाद - प्रादेशिक काल शुद्ध हो, लेकिन अर्धरात्रिक शुद्ध न हो तो प्रवेदन करके स्वाध्याय करे । इस प्रकार वैरात्रिक शुद्ध न हो, लेकिन अर्ध रात्रिक शुद्ध हो तो अनुग्रह के लिए प्रवेदन करके स्वाध्याय करे । इस प्रकार वैरात्रिक शुद्ध हो और प्राभातिक शुद्ध न हो तो प्रवेदन करके स्वाध्याय करे।
स्वाध्याय करने के बाद साधु सो जाए । इस प्रकार धीर पुरुष ने बताई हुई समाचारी बताई। सूत्र-१००६-१००७
उपकार करे वो उपधि कहते हैं । वो द्रव्य से देह पर उपकार करती है और भाव से ज्ञान, दर्शन, चारित्र का उपकार करता है । यह उपधि दो प्रकार की है । एक ओघ उपधि और एक उपग्रह उपधि वो दोनों गिनती प्रमाण
और नाप प्रमाण से दो प्रकार से आगे कहलाएंगी उस अनुसार समझना । ओघ उपधि यानि जिसे हमेशा धारण कर सके । उपग्रह उपधि- यानि जिस कारण से संयम के लिए धारण की जाए। सूत्र-१००८-१०१०
जिनकल्पि की ओघ उपधि - बारह प्रकार से बताई है । पात्रा, झोली, नीचे का गुच्छा, पात्र केसरिका,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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