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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' मछलियाँ उसमें फँस जाए । एक बार मैं उसमें फँस गई। तब सादड़ी के सहारे से बाहर नीकल गई । इस प्रकार मैं तीन बार उसमें से नीकल गई । इक्कीस बार जाल में फँसने से मैं जमीं पर छिप जाती इसलिए बच जाती। एकबार मैं थोड़े से पानी में रहती थी, उस समय पानी सूख गया । मछलियाँ जमीं पर चल नहीं सकती थीं, इसलिए उनमें से काफी मछलियाँ मर गईं । कुछ जिन्दा थी, उसमें मैं भी थी । वहाँ एक मछवारा आया और हाथ से पकड़पकड़कर मछलियाँ सूई में पिरोने लगा तब मुझे हुआ कि, जरुर अब मर जाएंगे जब तक बींधा नहीं गया, तब तक किसी उपाय करूँ कि जिससे बच शके' ऐसा सोचकर पिरोई हुई मछलियों के बीच जाकर वो सूई मुँह से पकड़कर मैं चीपक गई । मछेरे ने देखा कि सभी मछलियाँ पिरोई हुई हैं, इसलिए वो सूई लेकर मछलियाँ धोने के लिए दूसरे दह में गया । इसलिए मैं पानी में चली गई ऐसा मेरा पराक्रम है । तो भी तुम मुझे पकडने की उम्मीद रखते हो? तुम्हारी कैसी बेशर्मी? इस प्रकार मछली सावधानी से आहार पाती थी। उससे छल नहीं होती थी। वो द्रव्य ग्रास एषणा। सूत्र-८४६-८४८
इस प्रकार किसी दोष में छल न हो उस प्रकार से निर्दोष आहार-पानी की गवेषणा करके, संयम के निर्वाह के लिए ही आहार खाना । आहार लेने में भी आत्मा को शिक्षा दी जाए कि हे जीव ! तू बयालीस दोष रहित आहार लाया है, तो अब खाने में मूर्छावश मत होना, राग-द्वेष मत करना । आहार ज्यादा भी न लेना और कम भी मत लेना । जितने आहार से देह टिका रहता है, उतना ही आहार लेना चाहिए। सूत्र- ८४९-८५०
आगाढ़योग वहन करनेवाला - अलग उपयोग करे । अमनोज्ञ - मांडली के बाहर रखे हो वो अलग उपयोग करे । आत्मार्थिक - अपनी लब्धि से लाकर उपयोग करते हो तो अलग उपयोग करे । प्राघुर्णक - अतिथि आए हो उन्हें पहले से ही पूरा दिया जाए तो अलग उपयोग करे । नवदीक्षित - अभी उपस्थापना नहीं हुई है । इसलिए अभी गृहस्थवत् हो जिससे उनको अलग दे दे । प्रायश्चित्तवाले - दोष शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त करते हो शबल भ्रष्ट चारित्री अलग खाए । बाल, वृद्ध - असहिष्णु होने से अलग खाए । इस प्रकार अलग खाए तो असमुद्दिशक । एवं कोढ़ आदि बीमारी हो तो - अलग खाए। सूत्र-८५१-८५९
आहार उजाले में करना चाहिए । उजाला दो प्रकार का, द्रव्य प्रकाश और भाव प्रकाश । द्रव्य प्रकाश - दीपक, रत्न आदि का । भाव प्रकाश- सात प्रकार - स्थान, दिशा, प्रकाश, भाजन, प्रक्षेप, गुरु, भाव । स्थान - मांडली में साधु का आने-जाने का मार्ग छोड़कर और गृहस्थ न आते हो ऐसे स्थान में अपने पर्याय के अनुसार बैठकर आहार करना । दिशा - आचार्य भगवंत के सामने, पीछे, पराङ्मुख मैं न बैठना लेकिन मांडली के अनुसार गुरु से अग्नि या ईशान दिशा में बैठकर आहार करना । उजाला - उजाला हो ऐसे स्थान पर बैठकर आहार करना, क्योंकि मक्खी, काँटा, बाल आदि हो तो पता चले । अंधेरे में आहार करने से मक्खी आदि आहार के साथ पेट में जाए तो उल्टी, व्याधि आदि हो। भाजन - अंधेरे में भोजन करने से जो दोष लगे वो दोष छोटे मँहवाले पात्र में खाने से देर लगे या गिर जाए, वस्त्र आदि खराब हो, इत्यादि दोष लगे इसलिए चौडे पात्रा में आहार लेना चाहिए। प्रक्षेप - कूकड़ी के अंड़े के अनुसार नीवाला मुँह में रखना । या मुँह विकृत न हो उतना नीवाला । गुरु देख सके ऐसे खाना यदि ऐसे न खाए तो शायद किसी साधु काफी या अपथ्य उपयोग करे तो बीमारी आदि हो, या गोचरी में स्निग्ध द्रव्य मिला हो, तो वो गुरु को बताए बिना खा जाए । गुरु देख सके उस प्रकार से आहार लेना चाहिए । भाव - ज्ञान, दर्शन, चारित्र आराधना अच्छी प्रकार से हो इसलिए खाए । लेकिन वर्ण, बल, रूप आदि के लिए आहार न करे । जो साधु गुरु को दिखाकर विधिवत् खाते हैं वो साधु गवेषणा, ग्रहण एषणा और ग्रास एषणा से शुद्ध खाते
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मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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