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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' करना । उपाश्रय में से नीकले तब से लेकर उपाश्रय में प्रवेश करे तब तक के दोष मन में सोच ले । फिर गुरु को सुनाए । यदि गुरु स्वाध्याय करते हो, सो रहे हो, व्याक्षिप्त चित्तवाले हो, आहार या निहार करते हो तो आलोचना न करे । लेकिन गुरु शान्त हो, व्याक्षिप्त चित्तवाले न हो तो गोचरी के सभी दोष की आलोचना करे । सूत्र-८१२-८२२
गोचरी की आलोचना करते नीचे के छह दोष नहीं लगाना चाहिए । नढें - गोचरी आलोवता हाथ, पाँव, भृकुटि, सिर, आँख आदि के विकार करना । बलं- हाथ और शरीर को मुड़ना । चलं - आलस करते आलोचना करनी या ग्रहण किया हो उससे विपरीत आलोचना करनी वो। भासं- गृहस्थ की बोली से आलोचना करनी वो। मूकं - चूपकी से आलोचना करनी । ढडूरं - चिल्लाकर आलोचना करनी।
ऊपर के अनुसार दोष न ले । उस प्रकार आचार्य के पास या उनके संमत हो उनके पास आलोचना करे । समय थोड़ा हो, तो संक्षेप से आलोचना करे । फिर गोचरी बताने से पहले अपना मुँह, सिर प्रमार्जन करना और ऊपर नीचे आसपास नजर करके फिर गोचरी बतानी । क्योंकि उद्यान बगीचा आदि में उतरे हो वहाँ ऊपर से फल, पुष्प आदि न गिरे, नीचे फल आदि हो, उसकी जयणा कर सके, आसपास में बिल्ली-कुत्ता हो तो तराप मार के न जाए । गोचरी बताकर अनजाने में लगे दोष की शुद्धि के लिए आँठ श्वासोच्छ्वास (एक नवकार का) काऊस्सग्ग करे या अनुग्रह आदि का ध्यान करे । सूत्र- ८२३-८३९
फिर मुहूर्त मात्र स्वाध्याय कर के गुरु के पास जाकर कहे, प्राघुर्णक, तपस्वी, बाल आदि को आप गोचरी दो। गुरु महाराज दे या कहे, तुम ही उनको दो । तो खुद प्राघुर्णक आदि को और दूसरे साधु को भी निमंत्रणा करे । यदि वो ग्रहण करे, तो निर्जरा का लाभ, और ग्रहण न करे तो भी विशुद्ध परिणाम से निर्जरा मिले । यदि अवज्ञा से निमंत्रित करे तो कर्मबंध करे । पाँच भरत, पाँच ऐरवत और पाँच महाविदेह । यह पन्नर कर्मभूमि में रहे साधु में से एक साधु की भी हीलना करने से सभी साधु की हीलना होती है । एक भी साधु की भक्ति करने से सभी साधु की भक्ति होती है । (सवाल) एक हीलना से सबकी हीलना और एक की भक्ति होकर सब की भक्ति कैसे होगी? ज्ञान, दर्शन, तप और संयम साधु के गुण हैं । यह गुण जैसे एक साधु में हैं, ऐसे सभी साधु में हैं । इसलिए एक साधु की नींदा करने से सभी साधु के गुण की नींदा होती है और एक साधु की भक्ति, पूजा, बहुमान करने से पंद्रह कर्मभूमि में रहे सभी साधु की भक्ति, पूजा, बहुमान होता है । उत्तम गुणवान साधु की हमेशा वैयावच्च आदि करने से, खुद को सर्व प्रकार से समाधि मिलती है । वैयावच्च करनेवाले की एकान्त कर्म निर्जरा का फायदा मिलता है। साधु दो प्रकार के हो, कुछ मांडली में उपयोग करनेवाले हो और कुछ अलग-अलग उपयोग करनेवाले । जो मांडली में उपयोग करनेवाले हो, वो भिक्षा के लिए गए साधु आ जाए तब सबके साथ खाए । तपस्वी, नवदीक्षित, बाल, वृद्ध आदि हो वो, गुरु की आज्ञा पाकर अलग खा ले । इस प्रकार ग्रहण एषणा विधि धीर पुरुष ने की है। सूत्र-८४०-८४५
एषणा दो प्रकार से - द्रव्य और भाव ग्रास एषणा । द्रव्यग्रास एषणा - एक मछवारा मछलियाँ पकड़ने के गल-काँटे में माँसपिंड भराकर द्रह में डालता था । वह बात वो मछली को पता है, इससे वो मछली काँटे पर का माँसपिंड आसपास से खा जाती है, फिर वो गल हीलाती है, इसलिए मछेरा मछली उसमें फँसी हुई मानकर, उसे बहार नीकालता है, तो कुछ नहीं होता । इस प्रकार बार-बार वो मछली माँस खा जाती है, लेकिन गल में नहीं फँसती । यह देखकर मछेरा सोच में पड़ जाता है । सोच में पड़े उस मछेरे को मछली कहने लगे कि, एक बार मैं प्रमाद में थी वहाँ एक बग ने मुझे पकड़ा । 'बग भक्ष उछालकर फिर नीगल जाता है। इसलिए उस बग ने मुझे उछाला इसलिए मैं टेढी होकर उसके मुँह में गिरी । इस प्रकार तीन बार टेढी गिरी इसलिए बग ने मुझे छोड़ दिया।
एक दिन मैं सागर में गई, तब मछेरे ने मछलियाँ पकड़ने के लिए सादडी रखी थी । बाढ़ आने पर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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