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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' सूत्र - ६८९-७०३
दूसरे गाँव में गोचरी के लिए जाए तो भिक्षा का समय हुआ है या नहीं ? वो किसको किस प्रकार पूछे ? तरुण, मध्यम और स्थविर । हर एक में स्त्री, पुरुष और नपुंसक इन सबमें पहले कहा गया है । उस अनुसार यतनापूर्वक पूछना । भिक्षा का समय हो गया हो तो पाँव पूजकर गाँव में प्रवेश करे | गाँव में एक समाचारीवाले साधु हो तो उपकरण बाहर रखकर भीतर जाकर द्वादशावर्त्त वंदन करे । फिर स्थापनादि कुल पूछकर गोचरी के लिए जाए । भिन्न समाचारीवाले साधु सामने मिले तो थोभ वंदन (दो हाथ जोड़कर) करे छह जीवनिकाय की रक्षा करनेवाला साधु भी यदि अयतना से आहार, निहार करे या जुगुत्सित ऐसी म्लेच्छ, चंडाल आदि कुल में से भिक्षा ग्रहण करे वो तो बोधि दुर्लभ करता है । श्री जिनशासन में दीक्षा देने में वसति करने में या आहार पानी ग्रहण करने में जिसका निषेध किया है उसका कोशीशपूर्वक पालन करना । यानि ऐसे निषिद्ध मानव को दीक्षा न देना निषिद्ध स्थान की वसति न करनी ऐसे निषिद्ध घर में से भिक्षा ग्रहण न करना । सूत्र- ७०४-७०८
जो साधु जैसे-तैसे जो कुछ भी मिले वो दोषित आहार उपधि आदि ग्रहण करता है उस श्रमणगुण से रहित होकर संसार बढ़ाता है । जो प्रवचन से निरपेक्ष, आहार आदि में निःशुक, लुब्ध और मोहवाला बनता है । उसका अनन्त संसार श्री जिनेश्वर भगवंत ने बताया है इसलिए विधिवत् निर्दोष आहार की गवेषणा करनी । गवेषणा दो प्रकार की है। एक द्रव्य गवेषणा, दसरी भाव गवेषणा। सूत्र-७०९-७२३
द्रव्य गवेषणा का दृष्टांत । वसंतपुर नाम के नगर में जितशत्रु राजा की धारिणी नाम की रानी थी । वो एक बार चित्रसभा में गई, उसमें सुवर्ण पीठवाला मृग देखा । वो रानी गर्भवाली थी इसलिए उसे सुवर्ण पीठवाले मृग का माँस खाने की ईच्छा हुई । वो ईच्छा पूरी न होने से रानी सूखने लगी । रानी को कमझोर होते देखकर राजा ने पूछा कि, तुम क्यों सूख रही हो, तुम्हें क्या दुःख है ? रानीने सुवर्णमृग का माँस खाने की ईच्छा की । राजाने अपने आदमीओं को सुवर्णमृग पकड़कर लानेका हुकम किया । लोगोंने सोचा कि, सुवर्णमृग को श्रीपर्णी फल काफी प्रिय होते हैं । लेकिन अभी उन फलों की मौसम नहीं चल रही, इसलिए नकली फल बनाकर जंगल में गए और वहाँ वो नकली फल के अलग-अलग ढेर करके पेड़ के नीचे रखा । मृग ने यह देखा, नायक को बात की, सभी वहाँ आए, नायक ने वो फल देखे और सभी मृगों को कहा कि किसी धूतारेने हमें पकड़ने के लिए यह किया है, क्योंकि हाल में इनकी मौसम नहीं है । शायद तुम ऐसा कहोगे की बिना मौसम के भी फल आते हैं । तो भी पहले किसी दिन इस प्रकार द्वैर नहीं हुए थे । यदि पवन से इस प्रकार ढेर हो गए होंगे ऐसा लगता हो तो पहले भी पवन चलता था लेकिन ऐसे लैर नहीं हुए थे । इसलिए वो फल खाने के लिए कोई न जाए । इस प्रकार नायक की बात सुनकर कुछ मृग तो फल खाने के लिए न गए, जब फल खाने लगे तब राजा के आदमीओंने उन्हें पकड़ लिया । इसलिए उनमें से कुछ मर गए और कुछ बँध गए । जिसने वो फल नहीं खाए वो सुखी हो गए, मरजी से वन में घूमने लगे।
भाव गवेषणा का दृष्टांत । (नियुक्ति में यहाँ धर्मरुचि अणगार का दृष्टांत है ।) किसी महोत्सव अवसर पर काफी साध आए थे। किसी श्रावक ने या तो किसी भद्रिक पुरुषने साध के लिए भोजन तैयार करवाया। और दूसरे लोगों को बुलाकर भोजन देने लगे, उनके मन में यह था कि, यह देखकर साधु आहार लेने के लिए आएंगे। आचार्य को इस बात का किसी भी प्रकार पता चल गया, इसलिए साधुओं को कहा कि, 'वहाँ आहार लेने के लिए मत जाना, क्योंकि वो आहार आधाकर्मी है। कुछ साधु वहाँ आहार लेने के लिए न गए, लेकिन ज्यों-त्यों कुल में से गोचरी लेकर आए, जब कुछ साधु ने आचार्य का वचन ध्यान में न लिया और वो आहार लाकर खाया । जिन साधुओं ने आचार्य भगवंत का वचन सुनकर, वो आधाकर्मी आहार न लिया, वो साधु श्री तीर्थंकर भगवंत की आज्ञा के आराधक बने और परलोक में महासुख पानेवाले बने । जो जो साधुने आधाकर्मी आहार खाया वो साधु श्री जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा के विराधक बने और संसार बढ़ानेवाले बने । इसलिए साधु को निर्दोष आहार पानी
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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