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________________ आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' सूत्र-५८८-६४४ लेप पिंड़ - पृथ्वीकाय से मानव तक इन नौ के संयोग से उत्पन्न हुआ लेप पिंड होता है, किस प्रकार ? क्ष में पृथ्वी की रज लगी हो इसलिए - पृथ्वीकाय । गाड़ नदी पार करते समय पानी लगा हो तो अप्काय। गाड़ा का लोहा घिसते ही अग्नि उत्पन्न हो तो तेऊकाय । जहाँ अग्नि हो वहाँ वायुकाय है इसलिए वायुकाय, अक्ष लकड़े का हो तो वनस्पतिकाय । मली में संपातिम जीव पड़े हो तो बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चऊरिन्द्रिय और रस्सी घिसते हैं इसलिए पंचेन्द्रिय । इस लेप का ग्रहण पात्रादि रंगने के लिए होता है । लेप यतनापूर्वक ग्रहण करना । गाड़ी के पास जाकर उसके मालिक को पूछकर लेप ग्रहण करना । शय्यातर की गाड़ी का लेप ग्रहण करने में शय्यातर पिंड़ का दोष नहीं लगता । लेप की अन्त तक परीक्षा करनी चाहिए । मीठा हो तो लेप ग्रहण करना चाहिए । लेप लेने गरु महाराज को वंदन करके जाना, प्रथम नए पात्रा को लेप करना फिर पुराने पात्रा को, पुराने पात्रा का लेप नीकल गया हो तो वो गुरु महाराज को बताकर फिर लेप करे, पूछने का कारण यह है कि किसी नए साधु सूत्र-अर्थ ग्रहण करने के लिए आनेवाले हो तो पात्रा का लेप करने का निषेध कर सके या तो कोई मायावी हो तो उसकी वारणा कर सके । सुबह में लेप लगाकर पात्रा को सूखने दे, शक्ति हो तो उपवास करके लेप करे | शक्ति न हो तो लेप किया गया पात्र दूसरों को सँभालने के लिए सौंपकर खाने के लिए जाए। दूसरों को न सौंपे और ऐसे ही रखकर जाए तो संपातिम जीव की विराधना होती है । लेप की गठरी बनाकर पातरा का रंग करे, फिर ऊंगली द्वारा नरम बनाए । लेप दो, तीन या पाँच बार लगाए । पात्रा का लेप विभूषा के लिए न करे, संयम के लिए करे । बचा हुआ लेप रूई आदि के साथ रखने में मसलकर परठवे. लेप दो प्रकार के हैं एक युक्ति लेप, दूसरा खंजन लेप । काफी चीजें मिलाकर बनता युक्ति लेप निषिद्ध है, क्योंकि उसमें संनिधि करनी पड़ती है। शर्दी में पहले और चौथे प्रहर में लेप लगाए हुए पात्रा गर्मी में न सूखाना । पहला और अन्तिम अर्ध प्रहर में लेप लगाए हुए पात्रा गर्मी में न सूखाना । यह काल स्निग्ध होने से लेप का विनाश हो जाता है । पात्रा काफी गर्मी में सूखाने से लेप जल्द सूख जाता है । पात्र तूटा हुआ हो तो मुद्रिकाबंध से एवं नावाबँध से सीना, लेकिन स्तेनबंध से मत सीना । स्तेन बंध में दोनों ओर जोड न दिखे उस प्रकार पात्र को भीतर से सीने से पात्र निर्बल होता है। सूत्र- ६४५-६४८ निकाय, समूह, संपिड़न, पिंड़ना, समवाय, समवसरण, निचय, उपचय, चय, जुम्म, राशी एकार्थक नाम है इस प्रकार द्रव्यपिंड़ बताया अब भावपिंड़ बताते हैं । भावपिंड़ - दो प्रकार से प्रशस्त और अप्रशस्त । वपिंड - दो प्रकार, सात प्रकार से, आँठ प्रकार से और चार प्रकार से । दो प्रकार से - राग और द्वेष से, सात प्रकार से - इहलोक भय, परलोक भय, आदान भय, अकस्मात भय, आजीविका भय, मरण भय, अपयश भय । आँठ प्रकार से - आँठ मद के स्थान से जाति, कुल, बल, रूप, तप, सत्ता, श्रुत, फायदे से एवं आँठ कर्म के उदय से । चार प्रकार से - क्रोध, मान, माया और लोभ से पिंड़ ग्रहण करना वो अप्रशस्त पिंड़ । अप्रशस्त पिंड़ से आत्मा कर्म करके बँधता है । प्रशस्त भावपिंड़ - तीन प्रकार से । ज्ञान, दर्शन विषय, चारित्र विषय, यानि जिस पिंड़ से ज्ञान की वृद्धि हो, वो ज्ञानपिंड़ । जिस पिंड़ से दर्शन की वृद्धि हो वो दर्शनपिंड़ । चारित्र की वृद्धि करे वो चारित्र पिंड़ । ज्ञान-दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो, इसके लिए शुद्ध आहार आदि ग्रहण करे । लेप किए गए पात्र में, आहारादि ग्रहण किए जाते हैं, वो एषणा युक्त होने चाहिए । सूत्र-६४९-६७९ एषणा चार प्रकार से । नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव उसमें द्रव्य एषणा तीन प्रकार से गवेषणा, ग्रहण एषणा, ग्रास एषणा । अन्वेषणा के आँठ हिस्से । प्रमाण, काल, आवश्यक, संघाट्टक, उपकरण, मात्रक काऊस्सग्ग योग । प्रमाण- भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर दो बार जाना, बिना समय पर ठल्ला की शंका हुई हो तो उस समय पानी ले, भिक्षा के समय गोचरी और पानी लेना । काल - जिस गाँव में भिक्षा का जो समय हो उस समय जाए। समय के पहले जाए तो यदि प्रान्त द्वेषवाले गृहस्थ हो तो नीचे के अनुसार दोष बने । यदि वो साधु के दर्शन मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 30
SR No.034709
Book TitleAgam 41 1 Oghniryukti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 41 1, & agam_oghniryukti
File Size2 MB
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