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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' यतनापूर्वक पूछने के बाद वैद्य जो कहे उसके अनुसार परिचर्या - सेवा करना । लाना- यदि वैद्य ऐसा कहे कि, बीमार को उठाकर वैद्य के वहाँ न ले जाना, लेकिन वैद्य को उपाश्रय में लाना।
ग्लान साधु गाँव के बाहर ठल्ले जाता हो जाए तब तक वैयावच्च करे, फिर वहाँ रहे साधु यदि सहाय दे तो उनके साथ, वरना अकेले आगे विहार करे ।
सांभोगिक साधु हो तो, दूसरे साधु को सामाचारी देखते विपरीत परिणाम न हो उसके लिए, अपनी उपधि आदि उपाश्रय के बाहर रखकर भीतर जाए । यदि बीमारी के लिए रूकना पड़े तो, दूसरी वसति में रहकर ग्लान की सेवा करे । गाँव के पास गुजरनेवाला किसी पुरुष ऐसा कहे कि, 'तुम – ग्लान की सेवा करोगे ?' साधु कहे, 'हा करूँगा' वो कहे कि, 'गाँव में साधु ठल्ला, मात्रा से लीपिद है', तो साधु पानी लेकर ग्लान साधु के पास जाए और लोग देखे उस प्रकार से बिगड़े हुए वस्त्र आदि धुए। ।
साधु वैद्यक जानता हो उस प्रकार से औषध आदि करे, न जानता हो तो वैद्य की सलाह अनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल ओर भाव से वैयावच्च करे ।
ग्लान के कारण से एकाकी हुआ हो तो अच्छा होने पर उसकी अनुकूलता अनुसार साथ में विहार करे । निष्कारण एकाकी हुआ हो तो शास्त्र में बताये अनुसार ठपका दे । सूत्र- ११४-११८
गाँव में साध्वी रहे हो तो उपाश्रय के पास आकर बाहर से निसीहि कहे । यदि साध्वीयाँ स्वाध्याय आदि में लीन हो तो दूसरों के पास कहलाए कि 'साधु आए हैं। यह सुनकर साध्वी में मुखिया साध्वी स्थविरा वृद्ध हो तो दसरे एक या उस साध्वी के साथ बाहर आए यदि तरूणी हो तो दूसरी तीन या चार वद्ध साध्वी के साथ बाहर आए। साधु को अशन आदि निमंत्रणा करे । फिर साधु साध्वीजी की सुख छ । किसी प्रकार की बाधा हो तो साध्वीजी बताए । यदि साधु समर्थ हो तो प्रत्यनीक आदि का निग्रह करे, खुद समर्थ न हो, तो दूसरे समर्थ साधु को भिजवा दे । किसी साध्वी बीमार हो तो उसे औषधि आदि की बिनती करे । औषध का पता न हो तो वैद्य के वहाँ जाकर लाए और साध्वी उस प्रकार सबकुछ कहे । साधु को रूकना पड़े ऐसा हो तो दूसरे उपाश्रय में रूक जाए । साध्वी को अच्छा हो तब विहार करे । शायद साध्वी अकेली हो, बीमार हो और दूसरे उपाश्रय में रहकर बरदास्त हो सके ऐसा न हो तो उसी जगह में बीच में परदा रखे फिर शुश्रूषा करे । अच्छा होने पर यदि वो साध्वी निष्कारण अकेली हुई हो तो ठपका देकर गच्छ में शामील करवाए । किसी कारण से अकेली हुई हो तो यतना पूर्वक पहुँचाए सूत्र - ११९-१३६
___ गाँव में जिनमंदिर में दर्शन कर के, बाहर आकर श्रावक को पूछे कि, 'गाँव में साधु है कि नहीं ?' श्रावक कहे कि, 'यहाँ साधु नहीं है लेकिन पास ही के गाँव में है । और वो बीमार है ।' तो साधु उस गाँव में जाए ।
सांभोगिक, अन्य सांभोगिक और ग्लान की सेवा करे उसके अनुसार पासत्था, ओसन्न, कुशील, संसक्त, नित्यवासी, ग्लान की भी सेवा करे, लेकिन उनकी सेवा प्रासुक आहार पानी औषध आदि से करे । किसी ऐसे गाँव में चले जाए कि जहाँ ग्लान के उचित चीज मिल सके । अगले गाँव में गया, वहाँ ग्लान साधु के समाचार मिले तो उस गाँव में जाकर आचार्य आदि हो तो उन्हें बताए, आचार्य कहे कि, ग्लान को दो' तो ग्लान को दे, लेकिन ऐसा कहे कि - ‘ग्लान के योग्य दूसरा काफी है, इसलिए तुम ही उपयोग करो', तो खुद उपयोग करे । पता चला कि, 'आचार्य शठ है । तो वहाँ ठहरे नहीं । वेशधारी कोई ग्लान हो तो, वो अच्छा हो इसलिए कहे कि-'धर्म में उद्यम करो, जिससे संयम में दोष न लगे, उस प्रकार से समझाए । इस प्रकार से ग्लान आदि की सेवा करते हुए आगे विहार करे । इस प्रकार सभी जगह सेवा आदि करते हुए विहार करे तो आचार्य की आज्ञा का लोप नहीं होता। क्योंकि आचार्यने जिस काम के लिए भेजा है उस जगह पर अगले दिन पहँचे । श्री तीर्थंकर भगवंत की आज्ञा है कि - 'ग्लान की सेवा करनी चाहिए । इसलिए बीच में ठहर जाए, उसमें आचार्य की आज्ञा का लोप नहीं कहलाता लेकिन आज्ञापालन कहलाता है । क्योंकि तीर्थंकर की आज्ञा आचार्य की आज्ञा से ज्यादा मान्य है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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