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आगम सूत्र ३७, छेदसूत्र-४, 'दशाश्रुतस्कन्ध'
उद्देशक/सूत्र देवलोक में भी उत्पन्न होवे यावत् वहाँ से च्यव कर पुरुष भी होवे, उसे केवलिप्राप्त धर्म सूनने को भी मिले, किन्तु उसे श्रद्धा से प्रतीति नहीं होती यावत् वह दक्षिणदिशावर्ती नरकमें नारकी होता है । भविष्य में दुर्लभबोधि होता है।
हे आयुष्मान् श्रमणों ! यही है उस निदान शल्य का फल-कि उनको धर्म के प्रति श्रद्धा-प्रीति या रुचि नहीं होती । (यह है पाँचवा निदान') सूत्र- १०८
हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने धर्म का निरूपण किया है । (शेष सर्व कथन प्रथम 'निदान' के समान जानना।) देवलोक में जहाँ अन्य देव-देवी के साथ कामभोग सेवन नहीं करते, किन्तु अपनी देवी के साथ या विकुर्वित देव या देवी के साथ कामभोग सेवन करते हैं । यदि मेरे सुचरित तप आदि का फल हो तो (इत्यादि प्रथम निदानवत्) ऐसा व्यक्ति केवलि प्ररूपित धर्म में श्रद्धा-प्रीति-रुचि नहीं करते, क्योंकि वह अन्य दर्शन में रुचिवान् होता है । वह तापस, तांत्रिक, अल्पसंयत या हिंसा से अविरत होते हैं । मिश्रभाषा बोलते हैं जैसे कि मुझे मत मारो, दूसरे को मारो इत्यादि । वह स्त्री सम्बन्धी कामभोगों में मूर्छित, ग्रथित, गृद्ध, आसक्त यावत् मरकर किसी असुर लोक में किल्बिषिक देव होता है । वहाँ से च्यव कर भेड़-बकरों की प्रकार गुँगा या बहरा होता है।
हे आयुष्मान् श्रमणों ! यह इसी निदान का फल है कि वे केवलि प्ररूपित धर्म में श्रद्धा-प्रीति नहीं रखते । (यह हुआ छठा निदान') सूत्र-१०९
हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने धर्म का निरूपण किया है यावत् जो स्वयं विकुर्वित देवलोक में कामभोग का सेवन करते हैं । (यहाँ तक सब कथन पूर्व सूत्र-१०८ के अनुसार जानना) हे आयुष्मान् श्रमणों ! कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी ऐसा निदान करके बिना आलोचना-प्रतिक्रमण किए यदि काल करे यावत् देवलोक में उत्पन्न होकर अन्य देव-देवी के साथ कामभोग सेवन न करके स्वयं विकुर्वित देव-देवी के साथ ही भोग करे । वहाँ से च्यव कर किसी अच्छे कुल में उत्पन्न भी हो जाए, तब उसे केवलि प्ररूपित धर्म में श्रद्धा-प्रीति-रूचि तो होती है लेकिन वह शीलव्रत -गुणव्रत-प्रत्याख्यान-पौषधोपवास नहीं करते । वह दर्शनश्रावक हो सकता है । जीव-अजीव के स्वरूप का यथार्थ ज्ञाता भी होता है यावत् अस्थिमज्जावत् धर्मानुरागी भी होता है ।
हे आयुष्मान् श्रमण ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही जीवन में इष्ट है, यही परमार्थ है, शेष सर्व निरर्थक है, इस प्रकार अनेक वर्षों तक आगार धर्म की आराधना भी करे, मरकर किसी देवलोक में उत्पन्न भी होवे । लेकिन शीलव्रत आदि धारण न करे यह है इस निदान का फल । (यह हुआ सातवां निदान') सूत्र - ११०
हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है (शेष कथन प्रथम निदान समान जानना) मानुषिक विषयभोग अध्रुव यावत् त्याज्य हैं । दिव्यकाम भोग भी अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत एवं अस्थिर हैं । जन्म-मरण बढ़ानेवाले हैं । पहले या पीछे अवश्य त्याज्य हैं । यदि मेरे तप-नियम-ब्रह्मचर्य का कोई फल हो तो मैं विशुद्ध जाति-कुल में उत्पन्न होकर उग्र या भोगवंशी कुलिन पुरुष श्रमणोपासक बनु, जीवाजीव स्वरूप को जानुं यावत् प्रासुक अशन, पान, खादिम, स्वादिम प्रतिलाभित करके विचरण करूँ।
हे आयुष्मान् श्रमणों ! यदि कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी इस प्रकार से निदान करे, आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल करे, तो यावत् देवलोक में देव होकर-ऋद्धिमंत श्रावक भी हो जाए, केवलिप्रज्ञप्त धर्म का भी श्रवण करे, शीलव्रत-पौषध आदि भी ग्रहण करे, लेकिन वह मुंड़ित होकर प्रव्रजित नहीं हो सकता । श्रमणोपासक होकर यावत् प्रासुक एषणीय अशनादि प्रतिलाभित करके बरसों तक रहता है । अनशन भी कर सकता है, आलोचना प्रतिक्रमण करके समाधि भी प्राप्त करे यावत् देवलोक में भी जाए।
हे आयुष्मान् श्रमणों ! उस निदान का यह पापरूप विपाक है कि वह अनगार प्रव्रज्या ग्रहण नहीं कर सकता । (यह है आठवां निदान') मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(दशाश्रुतस्कन्ध)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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