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________________ आगम सूत्र ३७, छेदसूत्र-४,'दशाश्रुतस्कन्ध' उद्देशक/सूत्र सूत्र-१०५ हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने धर्म का निरूपण किया है। यहीं निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है । जो कोई निर्ग्रन्थ केवलि प्ररूपित धर्म की आराधना के लिए तत्पर हुआ हो, परिषहों को सहता हो, यदि उसे कामवासना का उदय हो जाए तो उसके शमन का प्रयत्न करे इत्यादि पूर्ववत् । यदि वह किसी स्त्री को देखता है, जो अपने पति की एकमात्र प्राणप्रिया है यावत् सूत्र-१०४ के समान सब कथन जानना । यदि निर्ग्रन्थ उस स्त्री को देखकर निदान करे कि ''पुरुष का जीवन दुःखमय है'' जो ये विशुद्ध जाति-कुलयुक्त उग्रवंशी या भोगवंशी पुरुष है, वह किसी भी युद्ध में जाते हैं, शस्त्र प्रहार से व्यथित होते हैं । यों पुरुष का जीवन दुःखमय है और स्त्री का जीवन सुखमय है । अगर मेरे तप-नियम-ब्रह्मचर्य का कोई फल हो तो में भविष्य में स्त्रीरूप में उत्पन्न होकर भोगों का सेवन करनेवाला बनूँ । हे आयुष्मान् श्रमणों ! वह निर्ग्रन्थ निदान करके उसकी आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल करे तो वह महती ऋद्धिवाला देव हो सकता है, बाद में पूर्वोक्त कथन समान स्त्रीरूप में उत्पन्न भी होता है । वो स्त्री को केवलि प्ररूपित धर्मश्रवण भी प्राप्त होता है । लेकिन श्रद्धापूर्वक धर्मश्रवण करती नहीं है क्योंकि वह धर्मश्रवण के लिए अयोग्य है । वह उत्कट ईच्छावाली यावत् दक्षिणदिशावर्ती नरकमें उत्पन्न होती है । भविष्य में बोधि दुर्लभ होती है। हे आयुष्मान् श्रमणों ! यह उस पापरूप निदान का फल है, जिससे वह धर्मश्रवण के लिए अयोग्य हो जाता है । (यह तीसरा निदान') सूत्र - १०६ हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है । यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है । यदि कोई निर्ग्रन्थी केवली प्रज्ञप्त धर्म के लिए तत्पर होती है, परिषह सहन करती है, उसे कदाचित् कामवासना का प्रबल उदय हो जाए तो वह तप संयम की उग्र साधना से उसका शमन करे । यदि उस समय (पूर्व वर्णित) उग्रवंशी या भोगवंशी पुरुष को देखे यावत् वह निदान करे कि स्त्री का जीवन दुःखमय है, क्योंकि गाँव यावत् सन्निवेश में अकेली स्त्री जा नहीं सकती। जिस प्रकार आम, बीजोरु, अम्बाड़ग इत्यादि स्वादिष्ट फल की पेशी हो, गन्ने का टुकड़ा या शाल्मली फली हो, तो अनेक मनुष्य के लिए वह आस्वादनीय यावत् अभिलषित होता है, उसी प्रकार स्त्री का शरीर भी अनेक मनुष्यों के लिए आस्वादनीय यावत् अभिलषित होता है । इसीलिए स्त्री का जीवन दुःखमय और पुरुष का जीवन सुखमय होता है। हे आयुष्मान् श्रमणों ! यदि कोई निर्ग्रन्थी पुरुष होने के लिए निदान करे, उसकी आलोचना प्रतिक्रमण किए बिना काल करे तो पूर्ववर्णन अनुसार देव बनकर, यावत् पुरुष बन भी सकती है । उसे धर्मश्रवण प्राप्त भी होता है, लेकिन सूनने की अभिलाषा नहीं होती यावत् वह दक्षिण दिशावर्ती नरक में उत्पन्न होता है। यही है उस निदान का फल, जिससे धर्मश्रवण नहीं हो सकता (यह हुआ चौथा निदान') सूत्र - १०७ हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने धर्म बताया है । यहीं निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् (प्रथम "निदान'' समान जान लेना ।) कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी धर्म शिक्षा के लिए तत्पर होकर विचरण करते हो, क्षुधादि परिषह सहते हो, फिर भी उसे कामवासना का प्रबल उदय हो जाए, तब उसके शमन के लिए तप-संयम की उग्र साधना से प्रयत्न करे । उस समय मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों से विरती हो जाए, जैसे कि मनुष्य सम्बन्धी कामभोग अध्रुव है, अनित्य है, अशाश्वत है, सड़न-गलन-विध्वंसक है । मल, मूत्र, श्लेष्म, मेल, वात, कफ, पित्त, शुक्र और रुधीर से उत्पन्न हुए हैं । दुर्गन्धयुक्त श्वासोच्छ्वास और मल-मूत्र से परिपूर्ण है । वात, पित्त, कफ के द्वार हैं। पहले या बाद में अवश्य त्याज्य हैं । देवलोक में देव अपनी एवं अन्य देवीओं को स्वाधीन करके या देवीरूप विकुर्वित करके कामभोग करते हैं । यदि मेरे सुचरित तप-नियम-ब्रह्मचर्य का कोई फल हो तो इत्यादि पहले निदान समान जानना। हे आयुष्मान् श्रमणों ! निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी इस निदानशल्य की आलोचना किए बिना काल करे यावत् मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(दशाश्रुतस्कन्ध)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद' Page 27
SR No.034705
Book TitleAgam 37 Dashashrutskandha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages30
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 37, & agam_dashashrutaskandh
File Size2 MB
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