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आगम सूत्र ३६, छेदसूत्र-३, 'व्यवहार'
उद्देशक/सूत्र सूत्र - ११८-११९
दो साधर्मिक साधु ईकट्ठे होकर विचरे । उसमें एक शिष्य है और एक रत्नाधिक है । शिष्य को पढ़े हुए साधु का परिवार बड़ा है, रत्नाधिक को ऐसा परिवार छोटा है । वो शिष्य रत्नाधिक के पास आकर उन्हें भिक्षा लाकर दे और विनयादिक सर्व कार्य करे, अब यदि रत्नाधिक का परिवार बड़ा हो और शिष्य का छोटा हो तो रत्नाधिक ईच्छा होने पर शिष्य को अंगीकार करे, ईच्छा न हो तो अंगीकार न करे, ईच्छा हो तो आहार-पानी देकर वैयावच्च करे, ईच्छा न हो तो न करे । सूत्र-१२०-१२२
दो साधु, गणावच्छेदक, आचार्य या उपाध्याय बड़ों को आपस में वंदन आदि करे बिना रहना न कल्पे, लेकिन अन्योन्य एक-एक को वडील रूप से अपनाकर विचरना कल्पे । सूत्र - १२३-१२६
कुछ साधु, गणावच्छेदक, आचार्य या यह सब ईकट्ठे होकर विचरे उनको अन्योन्य एक एक को वडील किए बिना विचरण न कल्पे । लेकिन छोटों को बड़ों को वडील की तरह स्थापित करके-वंदन करके विचरना कल्पे -ऐसा मैं (तुम्हें) कहता हूँ।
उद्देशक-४-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(व्यवहार)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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