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आगम सूत्र ३६, छेदसूत्र-३, 'व्यवहार'
उद्देशक/सूत्र
उद्देशक-४ सूत्र - ९५-९६
आचार्य-उपाध्याय को गर्मी या शीतकाल में अकेले विचरना न कल्पे, खुद के सहित दो के साथ विचरना कल्पे। सूत्र- ९७-९८
गणावच्छेदक को खुद के सहित दो लोगों को गर्मी या शीतकाल में विचरना न कल्पे, खुद के सहित तीन को विचरना कल्पे। सूत्र - ९९-१००
आचार्य-उपाध्याय को खुद के सहित दो को वर्षावास रहना न कल्पे, तीन को कल्पे । सूत्र-१०१-१०२
गणावच्छेदक को खुद के सहित तीन को वर्षावास रहना न कल्पे, चार को कल्पे । सूत्र - १०३-१०४
वे गाँव, नगर, निगम, राजधानी, खेड़ा, कसबो, मंडप, पाटण, द्रोणमुख, आश्रम, संवाह सन्निवेश के लिए अनेक आचार्य, उपाध्याय खुद के साथ दो, अनेक गणावच्छेदक को खुद के साथ तीन को आपस में गर्मी या शीत काल में विचरना कल्पे और.......
अनेक आचार्य-उपाध्याय को खुद के साथ तीन और अनेक गणावच्छेदक को खुद के साथ चार को अन्योन्य निश्रा में वर्षावास रहना कल्पे । सूत्र-१०५-१०६
एक गाँव से दूसरे गाँव विचरते, या चातुर्मास रहे साधु जो आचार्य आदि को आगे करके विचरते हो वो आचार्य आदि शायद काल करे तो अन्य किसी को अंगीकार करके उस पदवी पर स्थापित करके विचरना कल्पे ।
यदि किसी को कल्पाक-वडील रूप से स्थापन करने के उचित न हो और खुद आचार प्रकल्प-निसीह पढ़े हुए न हो तो उसको एक रात्रि की प्रतिज्ञा अंगीकार करना, जिन दिशा में दूसरे साधर्मिक-एक मांडलीवाले साधु विचरते हो वो दिशा ग्रहण करना, जो कि उसे विहार निमित्त से वहाँ रहना न कल्पे लेकिन बीमारी आदि की कारण से वहाँ बसना कल्पे, उसके बाद कोई साधु ऐसा कहे कि हे आर्य ! एक या दो रात यहाँ रहो, तो एक, दो रात वहाँ रहे यदि उससे ज्यादा रहे तो उसे उतनी रात का छेद या तप प्रायश्चित्त आता है। सूत्र - १०७-१०८
आचार्य-उपाध्याय बीमारी उत्पन्न हो तब या वेश छोड़कर जाए तब दूसरों को ऐसा कहे कि हे आर्य ! मैं काल करु तब इसे आचार्य की पदवी देना । वे यदि आचार्य पदवी देने के योग्य हो तो उसे पदवी देना । योग्य न हो तो न देना । यदि कोई दूसरे वो पदवी देने के लिए योग्य हो तो उसे देना, यदि कोई वो पदवी के लिए योग्य न हो तो पहले कहा उसे ही पदवी देना।
पदवी देने के बाद कोई साधु ऐसा कहे कि हे आर्य ! तेरी यह पदवी दोषयुक्त है इसलिए छोड़ दो । ऐसा कहने से वो साधु पद छोड़ दे तो उसे दीक्षा का छेद या तप का प्रायश्चित्त नहीं होता । यदि पद छोड़ने योग्य हो और पदवी न छोडे तो उन सबको और पदवीधर को दीक्षा का छेद या परिहारतप प्रायश्चित्त आता है। सूत्र - १०९-११०
आचार्य-उपाध्याय जो नवदीक्षित छेदोपस्थापनीय (बड़ी दीक्षा) को उचित हुआ है ऐसा जानने के बाद भी या विस्मरण होने से उसके वडील चार या पाँच रात से ज्यादा उस नवदीक्षित को उपस्थापना न करे तो आचार्य
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(व्यवहार)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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