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आगम सूत्र ३६, छेदसूत्र-३, 'व्यवहार'
उद्देशक/सूत्र रहना न कल्पे, पहले आचार्य और फिर उपाध्याय की स्थापना करके रहना कल्पे । ऐसा क्यों कहा? वो साधु नए हैं-तरुण हैं इसलिए उसे आचार्य-उपाध्याय आदि के संग बिना रहना न कल्पे, यदि साध्वी नवदीक्षित और तरुण हो तो उसे आचार्य-उपाध्याय प्रवर्तिनी कालधर्म पाए तब उनके बिना रहना न कल्पे, लेकिन पहले आचार्य फिर उपाध्याय, फिर प्रवर्तिनी ऐसे स्थापना करके तीनों के संग में रहना कल्पे । सूत्र - ७८-८०
जो साधु गच्छ छोड़कर जाए, फिर मैथुन सेवन करे, सेवन करके फिर दीक्षा ले तो उसे दीक्षा लेने के बाद तीन साल तक आचार्य से गणावच्छेदक तक का पदवी देना या धारण करना न कल्पे । तीन साल बीतने के बाद चौथे साल स्थिर हो, उपशान्त हो, क्लेष से निवर्ते, विषय से निवर्ते ऐसे साधु को आचार्य से गणावच्छेदक तक की छह पदवी देना या धारण करना कल्पे, लेकिन यदि गणावच्छेदक गणावच्छेदक की पदवी छोड़े बिना मैथुनधर्म का सेवन करे तो जावज्जीव के लिए उसे आचार्य से गणावच्छेदक में से एक भी पदवी देना या धारण करना न कल्पे, लेकिन यदि वो गणावच्छेदक की पदवी छोड़कर मैथुन सेवन करे तो तीन साल तक उसे पदवी देना न कल्पे, तीन साल बीतने के बाद चौथे साल वो स्थिर, उपशान्त, विषय, कषाय से निवर्तन किया हो तो आचार्य यावत् गणावच्छेदक की पदवी देना या धारण करना कल्पे। सूत्र - ८१-८२
आचार्य-उपाध्याय उनका पद छोड़े बिना मैथुन सेवन करे तो जावज्जीव के लिए उसे आचार्य यावत् गणावच्छेदक के छह पदवी देना या धारण करना न कल्पे, लेकिन यदि वो पदवी छोड़कर जाए, फिर मैथुन धर्म सेवन करे तो उसे तीन साल तक आचार्य पदवी देना या धारण करना न कल्पे लेकिन चौथा साल बैठे तब यदि वो स्थिर, उपशान्त, कषाय-विषय रहित हुआ हो तो उसे आचार्य आदि पदवी देना या धारण करना कल्पे । सूत्र-८३-८७
यदि कोई साधु गच्छ में से नीकलकर विषय सेवन के लिए द्रव्यलिंग छोड़ देने के लिए देशान्तर जाए, मैथुन सेवन करके फिर से दीक्षा ले । तीन साल तक उसे आचार्य आदि छ पदवी देना या धारण करना न कल्पे, तीन साल पूरे होने से चौथा साल बैठे तब यदि वो साधु स्थिर-उपशान्त-विषय-कषाय से निवर्तित हो तो उन्हें पदवी देना-धारण करना कल्पे, यदि गणावच्छेदक, आचार्य या उपाध्याय अपनी पदवी छोड़े बिना द्रव्यलिंग छोड़कर असंयमी हो जाए तो जावज्जीव आचार्य-उपाध्याय पदवी देना या धारण करना न कल्पे, यदि पदवी छोड़कर जाए और पुनः दीक्षा ग्रहण करे तो तीन साल पदवी देना न कल्पे आदि सर्व पूर्ववत् जानना। सूत्र - ८८-९४
साध जो किसी एक या ज्यादा, गणावच्छेदक, आचार्य, उपाध्याय या सभी बहश्रत हो, कईं आगम के ज्ञाता हो, कईं गाढ़-आगाढ़ के कारण से माया-कपट सहित झूठ बोले, असत्य भाखे उस पापी जीव को जावज्जीव के लिए आचार्य-उपाध्याय-प्रवर्तक, स्थविर, गणि या गणावच्छेदक की पदवी देना या धारण करना न कल्पे।
उद्देशक-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(व्यवहार)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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