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आगम सूत्र ३०/१, पयन्नासूत्र-७/१, 'गच्छाचार' आवश्यक और संयम में उद्यमवान और खर, कठोर, कर्कश, अनिष्ट और दुष्ट वाणी से और फिर अपमान और नीकाल देना आदि द्वारा भी जो द्वेष न करेसूत्र - ५५
अपकीर्ति न करे, अपयश न करे, अकार्य न करे, कंठ में प्राण आए तो भी प्रवचन मलीन न करे, वैसे मुनि बहोत निर्जरा करते हैं। सूत्र -५६
करने लायक या न करने लायक काम में कठोर-कर्कश-दुष्ट-निष्ठुर भाषा में गुरुमहाराज कुछ कहें, तो वहाँ शिष्य विनय से कहे कि, 'हे प्रभु, आप कहते हो वैसे वो वास्तविक है । इस प्रकार जहाँ शिष्य व्यवहार करता है हे गौतम ! वो सचमुच गच्छ है। सूत्र - ५७
____ पात्र आदि में भी ममत्वरहित, शरीरमे भी स्पृहा रहित शुद्ध आहार लेने में कुशल हो वो मुनि है । अगर अशुद्ध मिल जाए तो तपस्या करनेवाले और एषणा के बयालीस दोष रहित आहार लेने में कुशल हो वो मुनि है । सूत्र -५८
वो निर्दोष आहार भी रूप-रस के लिए नहीं, शरीर के सुन्दर वर्ण के लिए नहीं और फिर काम की वृद्धि के लिए भी नहीं, लेकिन अक्षोपांग की तरह, चारित्र का भार वहन करने और शरीर धारण करने के लिए ग्रहण करे। सूत्र - ५९
क्षुधा की वेदना शान्त करने के लिए, वैयावच्च करने के लिए, इर्यासमिति के लिए, संयम के लिए, प्राण धारण करने के लिए और धर्मचिन्तवन के लिए, ऐसे उस छ कारण से साधु आहार ग्रहण करे। सूत्र-६०
जो गच्छ में छोटे-बड़े का फर्क जान सके, बड़ों के वचन का सम्मान हो और एक दिन भी पर्याय से बड़ा हो, गुणवद्ध हो उसकी हीलना न हो, हे गौतम ! उसे हकीकत में गच्छ मानना चाहिए। सूत्र - ६१, ६२
और फिर जिस गच्छ में भयानक अकाल हो वैसे वक्त में प्राण का त्याग हो, तो भी साध्वी का लाया हुआ आहार सोचे बिना न खाए, उसे हे गौतम ! वास्तविक गच्छ कहा है।
और जिस गच्छ में साध्वीओं के साथ जवान तो क्या, जिसके दाँत गिर गए हैं वैसे बुढ़े मुनि भी आलाप, संलाप न करे और स्त्रीयों के अंग का चिन्तवन न करे, वो हकीकत में गच्छ है। सूत्र - ६३
हे अप्रमादी मुनि ! तुम अग्नि और विष समान साध्वी का संसर्ग छोड़ दो, क्योंकि साध्वी का अनुसरण करनेवाला साधु थोड़े ही काल में जरुर अपयश पाता है। सूत्र - ६४,६५
बुढ़े, तपस्वी, बहुश्रुत, सर्वजन को मान्य, ऐसे मुनि को भी साध्वी का संसर्ग लोगों की बुराई का आशय बनता है । तो फिर जो युवान, अल्पश्रुत, थोड़ा तप करनेवाले मुनि हो उसको आर्या का संसर्ग लोकनिन्दा का आशय क्यों न हो? सूत्र-६६
जो कि खुद दृढ़ अन्तःकरणवाला हो तो भी संसर्ग बढ़ने से अग्नि की नजदीक जैसे घी पीगल जाता है. वैसे मुनि का चित्त साध्वी के समीप विलीन होता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(गच्छाचार)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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